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वैयावृत्त्य का स्वरूप
एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो सो मोक्खो । जेण कित्ति सुयं सिग्धं, निस्सेसं चाभिगच्छई ॥ विणयं पि जो उवाएणं, चोइओ कुप्पई नरो । दिव्वं सो सिरिमेज्जंति, दंडे पडिसेहए || (द ९।२।२, ४)
धर्म का मूल है विनय ( आचार) और उसका परम फल है मोक्ष । विनय के द्वारा मुनि कीर्ति, श्लाघनीय श्रुत और समस्त इष्ट तत्त्वों को प्राप्त करता है ।
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विनय में उपाय के द्वारा भी प्रेरित करने पर जो कुपित होता है, वह आती हुई दिव्य लक्ष्मी को डंडे से रोकता है।
वेदक सम्यक्त्व - क्षायोपशमिक सम्यक्त्व से क्षायिक सम्यक्त्व को उपलब्ध करते समय, अन्तिम समय में जब जीव सम्यक्त्व मोहनीय का प्रदेशोदय में वेदन करता है, उस समय प्राप्त होने वाला सम्यक्त्व ।
( द्र. सम्यक्त्व )
विपुलमति-—- मानसिक चिन्तन के पुद्गलों की वेदनीय कर्म - सुख-दुःख के संवेदन का हेतुभूत कर्म । विविध परिणतियों को विशेष रूप से जानने वाला ज्ञान । ( द्र. कर्म ) वैक्रिय शरीर - विविध रूप करने में समर्थ शरीर । ( द्र. शरीर ) वैनयिकी बुद्धि - विनय - शिक्षा से उत्पन्न क्षमता । (द्र. बुद्धि) वैमानिक - ज्योतिश्चक्र से असंख्य योजन की दूरी पर स्थित विमानों में उत्पन्न होने वाले देव । (द्र देव )
(द्र. मनः पर्यवज्ञान ) विमल - तेरहवें तीर्थंकर । ( द्र. तीर्थंकर) विवेक - अशुद्ध आहार आदि का परिष्ठापन | प्रायश्चित्त का चौथा प्रकार ।
(द्र प्रायश्चित्त)
वैयावृत्त्य - सेवा, शुश्रूषा ।
वृद्धश्रावक - तापसों का एक सम्प्रदाय ।
उस्सण्णं बुड्ढवते पव्वयंति ति तावसा बुड्ढा भणिता । सावगधम्मातो पसूयत्ति बंभणा बोहगत्ति भणिता । अण्णे भांति - वुड्ढा सावगा बंभणा इत्यर्थः । ( अनुचू पृ १२ )
वृद्धा: - तापसाः प्रथमसमुत्पन्नत्वात् प्रायो वृद्धकाल एव दीक्षाप्रतिपत्तेः । श्रावका धिग्वर्णाः । अन्ये तु वृद्धश्रावका इति व्याचक्षते धिग्वर्णा एव ।
(अनुहावृ पृ १७ ) श्रावका — ब्राह्मणाः प्रथमं भरतादिकाले श्रावकाणामेव सत्ता पश्चाद् ब्राह्मणत्वभावाद् ।
( अनुमवृप २३) वृद्धश्रावक शब्द में दो पद हैं-वृद्ध और श्रावक । बद्ध का अर्थ है तापस और श्रावक का अर्थ है ब्राह्मण । भगवान् ऋषभ की प्रव्रज्या के बाद सबसे पहले तापसों की उत्पत्ति हुई, इसलिए वे वृद्ध कहलाये । अथवा तापस प्रायः वृद्धावस्था में संन्यास स्वीकार करते थे, इस कारण वे वृद्ध कहलाए ।
वैयावृत्त्य
कुछ आचार्यों ने वृद्धश्रावक शब्द को एक ही पद मानकर ब्राह्मण का वाचक बतलाया है ।
सम्राट् भरत आदि के समय में जो श्रावक थे, वे कालान्तर में ब्राह्मण कहलाये ।
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१. वैयावृत्त्य का स्वरूप २. वैयावृत्य किनकी ? ३. वैयावृत्त्य की अर्हता ४. वैयावृत्त्य अप्रतिपाती ५. वैयावृत्त्य के उदाहरण ६. वैयावृत्त्य के परिणाम
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वैयावृत्त्य : तप का एक भेद
(द्र. तप)
१. वैयावृत्त्य का स्वरूप
वेयावच्चं वावडभावो तह धम्मसाहणणिमित्तं । अन्नाइयाण विहिणा संपाडणमेस भावत्थो ॥ ( उशावृप ६०९ ) धर्मसाधना में सहयोग करने के लिए संयमी को शुद्ध आहार, औषध आदि लाकर देना तथा उसके अन्य कार्यों व्यावृत होना वैयावृत्त्य है ।
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