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दिशा के प्रकार
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लोक
यावदूर्ध्वलोकमध्यं, तत्र पञ्चरज्जुप्रमाणः प्रतरः, तत क्षेत्र, तापक्षेत्र, प्रज्ञापक और भाव । भावदिशा के उपर्यन्येऽन्ये प्रतरास्तिर्यगंगुलासंख्येयभागहान्या हीयमाना- अठारह प्रकार हैं । स्तावदवसेया यावल्लोकान्ते रज्जुप्रमाणः प्रतरः ।
द्रव्यविशा (नन्दीमत् प ११०)
तेरसपएसियं जं जहण्णओ दसदिसागिई दव्वं । लोकाकाश के प्रदेश प्रतर कहलाते हैं। यह ऊपर
उक्कोसमणंतपएसियं च सा होइ दव्वदिसा ।। का भाग है, यह नीचे का भाग है-इस रूप में इनका
एक्केको विदिसासु मज्झे य दिसासुमायया दो दो। विभाग नहीं होता तथा ये मंडक (रोटी) के आकार में
बिति दसाणगमण्णे दसदिसमेक्कक्कयं काउं ।। व्यवस्थित हैं।
तं न दसदिसागारं जं चउरस्सं ति तन्न दव्वदिसा ।" मेरु के समभूभाग से नीचे नौ सौ योजन तथा ऊपर
जघन्यतस्त्रयोदशप्रदेशावगाढात त्रयोदशप्रदेशिकात, नौ सौ योजन- इस प्रकार अठारह सौ योजन प्रमाण
उत्कृष्टतस्त्वसंख्येयप्रदेशावगाढादनन्तप्रदेशिकाद् द्रव्याद् तिर्यक्लोक है । उसके मध्य में दो क्षुल्लक प्रतर हैं।
दश दिश उत्तिष्ठन्ति । एतच्च द्रव्यं संपूर्णदशदिगुत्थानअलोक का स्पर्श करने वाले इन दो सर्वलघु प्रतरों की मोटाई अंगूल का असंख्येय भाग और लम्बाई एक
कारणत्वाद् द्रव्यदिगुच्यते ।
(विभा २६९८-२७०० मवृ पृ १४७) रज्जु प्रमाण है । इनके ऊपर-ऊपर अन्यान्य प्रतर अंगुल
जो द्रव्य दस दिशाओं के उत्थान का कारण है, वह के असंख्येय भाग की वृद्धि के क्रम से बढ़ते-बढ़ते ऊर्ध्व
द्रव्यदिशा है। यह जघन्यत: तेरह प्रदेशी और तेरह लोक के मध्य भाग तक प्रतर की लम्बाई पांच रज्जु हो ।
आकाशप्रदेशों में अवगाढ होती है तथा उत्कृष्टतः अनंतजाती है। उसके ऊपर जो अन्य प्रतर हैं, उनमें क्रमश:
प्रदेशी और असंख्यात आकाशप्रदेशों में अवगाढ होती है। अंगुल के असंख्येय भाग की हानि होती चली जाती है
तेरह प्रदेशों की स्थापनाऔर लोकांत का स्पर्श करने वाले प्रतर की लम्बाई एक रज्जु रह जाती हैं। ७. रुचकप्रदेश : दिशा-विदिशा का प्रवर्तक ___ तयोर्मध्यभागे जम्बूद्वीपे रत्नप्रभाया बहुसमे भूमिभागे मेरुमध्येऽष्टप्रादेशिको रुचकः । तत्र गोस्तनाकाराश्चत्वार उपरितनाः प्रदेशाश्चत्वारश्चाधस्तनाः । एष एव रुचकः सर्वासां दिशां विदिशां वा प्रवर्तकः, एतदेव च सकल
मध्य में एक और चार विदिशाओं में एक-एकतिर्यग्लोकमध्यम् ।
(नन्दीमत् प ११०)
इस प्रकार पांच प्रदेशावगाढ पांच परमाणु तथा चार
दिशाओं में आयत रूप में अवस्थित दो-दो परमाणुतिरछे लोक के मध्य में दो क्षुल्लक प्रतर हैं। उनके
इस प्रकार जघन्यत: तेरह आकाशप्रदेशों में अवगाढ तेरह मध्य में, जम्बूद्वीप में, रत्नप्रभा के समतल भूमिभाग पर,
प्रदेशी स्कंध दस दिशाओं के उत्थान का हेतु है और यही मेरु के मध्य में आठ प्रदेश वाला रुचक है। उस रुचक के
द्रव्यदिशा है। चार ऊपर के और चार नीचे के आठों प्रदेश गोस्तन
कुछ आचार्य दस परमाणुओं को दस दिशाओं में आकार वाले हैं। यह रुचक सब दिशाओं और विदिशाओं
स्थापित कर उन्हें दिशाओं के उत्थान का हेतु मानते हैं, का प्रवर्तक है। यह सम्पूर्ण तिर्यक लोक के ठीक मध्य में
जो समीचीन नहीं है, क्योंकि दस दिशाओं का आकार स्थित है।
चतुरस्र होता है और वह दस परमाणुओं से संभव नहीं ८. दिशा के प्रकार
है । अत: तेरह परमाणु ही दस दिशाओं के उत्थान के
निबन्धक हैं, न्यून या अधिक नहीं। नाम ठवणा दविए खेत्तदिसा तावखेत्त पन्नवए । सत्तमिया भावदिसा सा होअट्ठारसविहा उ॥
क्षेत्र विशा
(आवनि ८०९) "खेत्तदिसपएसियरुयगाओ मेरुमज्झम्मि । दिशा के सात प्रकार हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य,
(विभा २७००)
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