________________
लोक
लोकाकाश के प्रतर
झल्लरी-उभयतः विस्तीर्ण तथा मध्य में संकीर्ण-के जोयणसतप्पमाणो तिरियभागट्ठियत्तणतो तिरियलोगो। संस्थान वाला है। ऊर्ध्व लोक मृदंग-ऊर्ध्व-आयत, ऊपर
(अनुचू पृ ३४,३५) से तनु तथा नीचे से विस्तीर्ण-के संस्थान वाला है। बहुसम (समतल) भूमिभाग वाले रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊर्ध्वलोक की आकृति ऊर्ध्व मृदंग जैसी है।
मध्यभाग में स्थित मेरु के मध्य अष्टप्रदेशी रुचक है। लोक सुप्रतिष्ठक संस्थान वाला है अर्थात् त्रिशराव- उसके अधोवर्ती प्रतर के नीचे नौ सौ योजनपर्यंत तिर्यक सम्पुटाकार है। एक शराव उल्टा रखकर उस पर एक लोक है। उससे आगे अधःस्थित साधिक सात रज्जु शराव सीधा और फिर उस पर एक शराव उल्टा रखने प्रमाण अधोलोक है। रुचक के ऊर्ववर्ती प्रतर के ऊपर पर त्रिशरावसम्पुट की आकृति बनती है। यही लोक
को
ना सा याजन त
नौ सौ योजन तक ज्योतिश्चक्र के उपरितल पर्यन्त तिर्थक की आकृति है।
लोक है। उससे ऊपर कुछ न्यून सात रज्जु प्रमाण ऊर्ध्व__ अलोक शुषिरगोलक के संस्थान वाला है।
लोक है। अधोलोक और ऊर्वलोक के मध्य में तिर्यग वैशाखस्थानस्थं प्रसारितपादं कटिस्थकरयुग्मं पुरुष
भाग में स्थित अठारह सौ योजन प्रमाण तिर्यक लोक है। मिव लोक व्यवस्थाप्य सर्वमिदं भावनीयम् ।
से समासओ तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-सेढीअंगुले (नन्दीहावटि १२२) पयरगुले घणंगुले। असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ खडे-खडे मन्थन करते शाप के पैर फैले द्वारा सेढी, सेढी सेढीए गुणिया पयर, पयरं सेढीए गुणियं दोनों हाथ कटिभाग पर रखे हए हैं—पूरुष के इस आकार लोगो, संखेज्जएणं लोगो गुणितो संखेज्जा लोगा. में लोकपुरुष संस्थित है।
असंखेज्जएणं लोगो गुणितो असंखेज्जा लोगा। (लोक पुरुष के दोनों पैरों के स्थान में है अधोलोक ।
(अनु ४११) उसके कटिस्थानीय है ज्योतिश्चक्र । लोकपुरुष के कोहनी- प्रमाणांगुल के तीन प्रकार हैं-श्रेणीअंगुल, प्रतरस्थानीय ब्रह्मलोक है और उसके मस्तक का तिलक है अंगुल और घनअंगुल । प्रमाणांगुल से निष्पन्न असंख्यात सिद्धशिला।)
कोडाकोडी (१०००००००४१०००००००) योजनों की ५. लोक का प्रमाण
एक प्रदेशात्मक श्रेणी होती है । श्रेणी को श्रेणी से गुणित
करने पर प्रतर और प्रतर को श्रेणी से गुणित करने पर लोगो चउद्दसरज्जूसितो। हेट्ठा देसूणसत्तरज्जू
लोक होता है। लोक को संख्येय से गुणित करने पर विच्छिण्णो, तिरियलोगमज्झे रज्जुविच्छिण्णो, एवं बंभ
संख्येय लोक और असंख्येय से गणित करने पर असंख्येय लोगमज्झे पंच, उरि लोगते एगरज्जूविच्छिण्णो । रज्जू
लोक होते हैं। पुण सयंभुरमणसमुद्दपुरथिमपच्चत्थिमवेइयंता।
(प्रस्तुत प्रकरण में घनांगुल का प्रमाण और लोक (अनुहावृ पृ ७६)
का प्रमाण एक समान है। लोक का प्रमाण ३४३ घन लोक की ऊंचाई चौदह रज्जू है । अधोलोक कुछ कम
रज्जु है। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराएं इसमें सात रज्ज् विस्तीर्ण है । तिर्यग् लोक एक रज्जू, ब्रह्मलोक एकमत हैं, परन्तु लोक की आकृति के कारण गणित की पांच रज्जू और ऊपर लोकांत के पास एक रज्जू विस्तीर्ण प्रक्रिया में भिन्नता है। देखें-अणुओगदाराई सूत्र ४११ है । स्वयंभूरमणसमुद्र पूर्व से पश्चिम वेदिकान्त तक का का टिप्पण) प्रमाण एक रज्जू है।
६. लोकाकाश के प्रतर ___ बहुसमभूमिभागे रयणप्पभामज्झभागे मेरुमज्झे अट्ठ
लोकाकाशप्रदेशा उपरितनाधस्तनदेशरहिततया विवपदेसो रुयगो। तस्सऽधोपतरातो अहे य णं नव जोयण- क्षिता मण्डकाकारतया व्यवस्थिताः प्रतरमित्युच्यन्ते । तत्र सताणि जाव ता तिरियलोगो । ततो परेण अहेट्टितत्तणतो तिर्यग्लोकस्योवधिोऽपेक्षयाऽष्टादशयोजनशतप्रमाणस्य अहोलोगो साहियसत्तरज्जुप्पमाणो। रुचतोवरिपतरातो मध्यभागे द्वौ लघक्षुल्लकप्रतरौ। उवरिहुत्तो नवजोयणसताणि जोतिसचक्कस्स उवरितलो .... "तौ च द्वौ सर्वल प्रतरावङगुलासंख्येयभागताव तिरियलोगो। ततो उड्ढभागठितत्तणतो उड्ढलोगो बाहल्यावलोकसंवत्तितौ रज्जुप्रमाणी तत एतयोरुपर्यन्येऽन्ये देसूणसत्तरज्जुप्पमाणो। अहउड्ढलोगाण मज्झे अट्ठारस- प्रतरास्तिर्यगंगुलासंख्येयभागवृद्ध्या वर्द्धमानास्तावद्दष्टव्या
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org