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मनःपर्यवलब्धि आदि
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लिंग
वैक्रियलब्धि, सौंषधिलब्धि आदि लब्धियां अप्रमत्तता के व्यक्ति हैं। ऋद्धिसम्पन्न साधु अपनी चरणरज से क्षणभर गुण से प्राप्त होती हैं, तथा मानसिक, वाचिक और में सब रोगों का उपशमन कर सकते हैं । वे तृण के अग्रकायिक बल भी प्रादुर्भूत होते हैं ।
भाग से तीनों लोकों को विस्मित करने वाली उपभोग६. लब्धि और साकारोपयोग
परिभोग सामग्री दे सकते हैं। उन्हें रत्नवृष्टि, स्वर्णवृष्टि .."सवाओ लद्धीओ जं सागारोवओगलाभाओ।
आदि की शक्ति उपलब्ध हो जाती है। हजारों विशाल (विभा ३०८९)
शिलाखण्डों को गिराने की क्षमता भी लब्धि से प्राप्त सभी लब्धियां साकारोपयोग (ज्ञानोपयोग) में ही
होती है। प्राप्त होती हैं।
६. मनःपर्यवल ब्धि आदि बारह बातों का विच्छेद ७. लब्धि और औदयिक आदि भाव
मण-परमोहि-पुलाए आहारग-खवग-उवसमे कप्पे ।
संजमतिय-केवलि-सिझणा य जंबुम्मि वच्छिण्णा ॥ उदय-खय-खओवसमोवसमसमुत्था बहुप्पगाराओ। एवं परिणामवसा लद्धीओ होंति जीवाणं ।।
(विभा २५९३) जीवानां शुभ-शुभतर-शुभतमपरिणामवशाद् बहु
आचार्य जम्बू के मुक्त होने के पश्चात् बारह वस्तुएं प्रकारा अपरिमितसंख्या लब्धयो भवन्ति । वैक्रियाऽऽहार
विच्छिन्न हो गईं---
१. मनःपर्यवज्ञान ७. जिनकल्प कनामादिकर्मोदयसमुत्थास्तावद् वैक्रिया-ऽऽहारकशरीरकरणादिका लब्धयो भवन्ति । दर्शनमोहादिक्षयसमुत्थास्तु
२. परमावधिज्ञान ८. परिहारविशुद्धि क्षायिकसम्यक्त्व-क्षीणमोहत्व-सिद्धत्वादयः ।
३. पुलाक लब्धि दान
९. सूक्ष्मसम्पराय लाभान्तरायादिकर्मक्षयोपशमसमुत्था अक्षीणमहानस्यादयः ।
४. आहारक लब्धि १०. यथाख्यात चारित्र
५, क्षपकश्रेणि ११. केवली ''दर्शनमोहाद्युपशमसमुत्था औपशमिकसम्यक्त्वोपशान्तमोहत्वादिका लब्धयो भवन्ति । (विभा ८०१ मत् पृ ३२७)
६. उपशमश्रेणि १२. मुक्ति । जीवों के शुभ-शुभतर-शुभतम परिणामों के आधार लिग-वश । पर लब्धियां प्राप्त होती हैं । उनके मुख्य भेद चार और द्रव्यलिंग-भावलिंग अवान्तर भेद अनेक हैं---
भावलिङ्गगभं तु द्रव्यलिङ्गं नमस्क्रियते तस्यैवाभि० कर्मों के उदय से प्राप्त लब्धि - वैक्रियनामकर्म के लषितार्थक्रियाप्रसाधकत्वात्, रूपकदृष्टान्तश्चात्रउदय से वैक्रियशरीरकरण । आहारकनामकर्म के
रुप्पं टंक विसमाहयक्खरं नवि रूवओ छेओ। उदय से आहारकशरीरकरण आदि।
दुहंपि समाओगे रूवो छेयत्तणमुवेइ । ० कर्मों के क्षय से प्राप्त-दर्शनमोहनीय आदि के क्षय
रुप्प पत्तेयबुहा टंक जे लिंगधारिणो समणा । से क्षायिक सम्यक्त्व, क्षीणमोह, सिद्धत्व आदि ।
दव्वस्स य भावस्स य छेओ समणो समाओगे ।। ० कर्मों के क्षयोपशम से प्राप्त - दान-लाभ-अन्तराय
अत्र तावच्चतुर्भङ्गी-रूपम् अशुद्धं टकं विषमाआदि कर्म के क्षयोपशम से अक्षीणमहानस आदि ।
हताक्षरमित्येकः । रूपमशुद्धं टङ्कं समाहताक्षरमिति ० कर्मों के उपशम से प्राप्त-दर्शन मोहनीय कर्म के तीमा
द्वितीयः । रूपं शुद्धं टङ्क विषमाहताक्षरमिति तृतीयः । उपशम से औपशमिक सम्यक्त्व आदि ।
रूपं शुद्धं टवं समाहताक्षरमिति चतुर्थः । अत्र च रूप८. लब्धियों की निष्पत्ति
कल्पं भावलिङ्ग, टङ्ककल्पं द्रव्यलिङ्गम् । इह च प्रथमऋद्धिः तपोमाहात्म्यरूपा, सा च आमशौषध्यादिः -- भङ्गतुल्याश्चरकादयः, अशुद्धोभयलिङ्गत्वात् । द्वितीयपादरजसा प्रशमनं सर्वरुजां साधवः क्षणात्कुर्युः। भङ्गतुल्याः पार्श्वस्थादयः, अशुद्धभावलिङ्गत्वात् । तृतीयत्रिभुवनविस्मयजननान् दद्युः कामांस्तृणाग्राद्वा ॥ भङ्गतुल्याः प्रत्येकबुद्धा अन्तर्मुहर्तमानं कालमगृहीत द्रव्यधर्माद्रत्नोन्मिश्रितकाञ्चनवर्षादिसर्गसामर्थ्यम् । लिङ्गाः । चतुर्थभङ्गतुल्याः साधवः शीलयुक्ताः गच्छगता अद्भुतभीमोरुशिलासहस्रसम्पातशक्तिश्च
निर्गताश्च जिनकल्पिकादयः । (उशावृ प १३१)
(आवनि ११३८, ११३९ हावृ २ पृ २४,२५) आमषौंषधि आदि लब्धियां तप की महत्ता की अभि- सामान्य विधि के अनुसार वह साधु वन्दनीय है, जो
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