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मनुष्य
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मनुष्य भव की दुर्लभता : दस दृष्टांत
क्षेत्र परिमित होता है। वे महाकाय और प्रत्येक शरीरी अत्यन्त वेदना वाले हैं, वे अपने कृत कर्मों के द्वारा होते हैं । मनुष्यों के औदारिक शरीर संख्येय अथवा मनुष्येतर (नरक, तिर्यञ्च) योनियों में ढकेले जाते हैं। असंख्येय होते हैं । यह असंख्येयता समूच्छिम मनुष्यों की कालक्रम के अनुसार कदाचित् मनुष्यगति को रोकने अपेक्षा से है।
वाले कर्मों का नाश हो जाता है। उस शुद्धि को पाकर मणुयाण जहण्णपदे एक्कारस पुव्वकोडिकोडीतो। जीव मनुष्य भव को प्राप्त होते हैं। बावीस कोडिलक्खा कोडिसहस्सा य चुलसीति । प्रहीयमाणेषु मनुष्ययोनिधातिषु कर्मसु निर्वर्तकेषु अठेव य कोडिसता पुव्वाण दसुत्तरा ततो होति । वा आनुपूर्येण उदीर्यमाणेसु, कथं आनुपूा उदीर्यते ? एकासीति लक्खा पंचाणउई सहस्सा य॥ उच्यते, उक्कडढतं जहा तोयं, अहवा कम्म वा जोगं व छप्पण्णा तिणि सता पूव्वाणं पुव्ववणिया अण्णे। भवं च आयूगं वा मणस्सगतिणामगोत्तस्स कस्मिश्चित्तु एत्तो पूव्वंगाई इमाइं अहियाई अण्णाई ।। काले कदाचित तु प्ररणे, न सर्वदेवैत्यर्थः । (उच पृ ९८) लक्खाई एक्कवीसं पूवंगाण सरि सहस्सा य ॥ तिर्यच और नरकगति के योग्य कर्म मनुष्यगति की छच्चेवेगूणदा पुव्वंगाणं सता होंति ॥ प्राप्ति के प्रतिबन्धक होते हैं। उनके अस्तित्व-काल में तेसीति सतसहस्सा छप्पण्णा खलु भवे सहस्सा य। जीव मनुष्यगति को प्राप्त नहीं होता। मनुष्यगति के तिन्नि सया छत्तीसं एवइया वेगला मणुया ॥
बाधक कर्मों का नाश तथा मनुष्य-आनुपूर्वी नामकर्म का
__ (अनुचू पृ७१) उदय होने पर जीव को मनुष्यगति में आने की शुद्धि मनष्य का जघन्यपद में संख्यापरिमाण संख्यात प्राप्त होती है। उसी अवस्था में वह मनुष्य बनता है। कोटिकोटि में बताया गया है -
ग्यारह कोटिकोटि बाईस लाख कोटि चौरासी हजार १०. चार अग दुलभ कोटि आठ सौ दस कोटि पूर्व, इक्यासी लाख पिच्यानवे चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जंतुणो। हजार तीन सौ छप्पन पूर्व, इक्कीस लाख सत्तर हजार माणुसत्तं सुई सद्धा संजमम्मि य वीरियं ।। छह सौ उनसठ पूर्वांग, तैयासी लाख छप्पन हजार तीन
(उ ३।१) सौ छत्तीस।
इस संसार में प्राणियों के लिए चार परम अंग (चौरासी लाख का एक पूर्वांग होता है। चौरासी दुर्लभ हैं-मनुष्यत्व, श्रुति, श्रद्धा और संयम में पराक्रम । लाख को चौरासी लाख से गुणन करने पर जो संख्या लब्ध हो, वह एक पूर्व है। अनुयोगद्वारचूणि में मनुष्यों
११. मनुष्य भव को दुर्लभता : दस दृष्टांत की जघन्य पद संख्या के उनतीस स्थान निर्दिष्ट हैं।)
चल्लग पासग धन्ने जए रयणे य समिण चक्के य।
(द. शरीर) चम्म जुगे परमाणू दस दिळंता मण अलंभे ॥ ६. मनुष्य भव की प्राप्ति का हेतु
(उनि १५९) दुल्लहे खलु माणुसे भवे, चिरकालेण वि सव्वपाणिणं ।
१. चोल्लग-बारी-बारी से भोजन । ब्रह्मदत्त का गाढा य विवाग कम्मुणो"""
........... एक कार्पटिक सेवक था जिसने उसको अनेक बार
(उ१०।४) विपत्तियों से बचाया था। वह सदा उसका सहायक बना - सब प्राणियों को चिरकाल तक भी मनष्य जन्म रहा। ब्रह्मदत्त राजा बन गया। पर इस बेचारे को कहीं मिलना दुर्लभ है। कर्म के विपाक तीव्र होते हैं।
आश्रय नहीं मिला। राजा से अब मिलना दुष्कर हो कम्मसंगेहिं सम्मूढा, दुक्खिया बहुवेयणा । गया। बारह वर्ष बीत गए । अभिषेक का बारहवां वर्ष । अमाणुसासु जोणीसु, विणिहम्मति पाणिणो ।। कार्पटिक ने उपाय सोचा । वह ध्वजारोहकों के साथ कम्माणं तु पहाणाए, आणपुवी कयाइ उ । चल पड़ा। राजा ने उसे पहचान लिया । राजा ने उसको जीवा सोहिमणुप्पत्ता, आययंति मणुस्सयं ॥ अपने पास बुलाकर कहा-जो इच्छा हो वह मांगो।
(उ ३।६,७) कार्पटिक बोला-राजन् ! मैं पहले दिन आपके प्रासाद जो जीव कर्मों के संग से सम्मूढ, दुःखित और में भोजन करूं, फिर बारी-बारी से आपके समस्त राज्य
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