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भाषासमिति
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वाक्यशुद्धि की निष्पत्ति
(प्रयोजनवश बोलना हो तो) औषधियां अंकुरित हैं, ७. भाषा चपल के प्रकार निष्पन्न प्रायः हैं, स्थिर हैं, ऊपर उठ गई हैं, भुट्टों से
भासाचवलो चउविहो, तं जहा-असप्पलावी रहित हैं, भुट्टों से सहित हैं, धान्य-कण सहित हैं-इस
असब्भप्पलावी असमिक्खपलावी अदेसकालप्पलावी । तत्थ प्रकार बोले।
असप्पलावी नाम जो असंतं उल्लावेति। असब्भप्पलावी निश्चयकारिणी
जो असब्भं उल्लावेति। खरफरुसअक्कोसादि असम्भं ।
असमिक्खियपलावी असमिक्खिउं उल्लावेति। जं से मुहातो तम्हा गच्छामो वक्खामो, अमगं वाणे भविस्सई ।
एति तं उल्लावेति । अदेसकालपलावी जाहे किंचि कज्ज अहं वा णं करिस्सामि, एसो वा णं करिस्सई ।।
अतीतं ताहे भणति–जति पकरेंति सुंदरं होतं, मए पुव्वं एवमाई उ जा भासा, एसकालम्मि संकिया।
चेव चितितेल्लयं ।
(उचू पृ १९७) संपयाईयमठे वा, तं पि धीरो विवज्जए ।
भाषाचपल के चार प्रकार हैं - (द ७।६,७)
१. असत् प्रलापी-जो असत्य प्रलाप करता है। 'हम जाएंगे', 'कहेंगे', 'हमारा अमुक कार्य हो
२. असभ्य प्रलापी-जो अशिष्ट, कठोर, रूखे और जाएगा', 'मैं यह करूंगा' अथवा 'यह (व्यक्ति) यह आक्रोश भरे वचन बोलता है। (कार्य) करेगा'--- यह और इस प्रकार की दूसरी भाषा ३. असमीक्ष्यप्रलापी-जो हित-अहित की समीक्षा किए जो भविष्य-सम्बन्धी होने के कारण (सफलता की दृष्टि बिना बोलता है। जैसा मन में आता है, वैसा ही से) शंकित हो अथवा वर्तमान और अतीतकाल संबंधी अंटसंट बोलता है। अर्थ के बारे में शंकित हो, उसे भी धीर पुरुष न बोले। ४. अदेशकालप्रलापी-जब कोई कार्य हो चुकता हैअईयम्मि य कालम्मी, पच्चप्पन्नमणागए ।
तब कहता है -यदि इसे ऐसे किया जाता तो अच्छा जमलैं तु न जाणेज्जा, एवमेयं ति नो वए ।
होता । मैंने पहले ही सोच लिया था। ..."जत्थ संका भवे तं तु, एवमेयं ति नो वए ।।
की निष्पत्ति ..."निस्संकियं भवे जंत, एवमेयं ति निहिसे ।।
जं वक्कं वदमाणस्स संजमो सुज्झई न पूण हिंसा । (द ७८-१०)
न य अत्तकलुसभावो तेण इहं वक्कसूद्धि त्ति ।। अतीत, वर्तमान और अनागत काल-सम्बन्धी जिस
(दनि १९०) अर्थ को (सम्यक् प्रकार से) न जाने, जिस अर्थ में शंका जिन वाक्यों को बोलने से संयम की विशुद्धि, अहिंसा हो, उसे 'यह इस प्रकार ही है'-ऐसा न कहे; बल्कि
की आराधना और भावधारा की पवित्रता होती है, वैसे जो अर्थ निःशंकित हो (उसके बारे में) 'यह इस प्रकार
वाक्यों का प्रस्तुत अध्ययन में विवेचन है और यही ही है'-ऐसा कहे।
वाक्यशुद्धि है। ६. भाषा के आठ वर्जनीय स्थान
वयणविभत्तिअकुसलो अयोगतं बहुविधं अजाणतो ।
जति वि ण भासति किंची न चेव वतिगुत्तयं पत्तो ।। कोहे माणे य मायाए, लोभे य उवउत्तया ।
वयणविभत्तिकूसलो वयोगतं बहविधं वियाणंतो। हामे भए मोहरिए, विगहासु तहेव च ।।
दिवसमवि भासमाणो अभासमाणो व वइगुत्तो ।। एपाइं अट्ठ ठाणाइं, परिवज्जित्तु संजए ।
(दनि १९२,१९३) अमावज्ज मियं काले, भासं भासेज्ज पन्नवं ।।
जो वचनविभक्ति/भाषा के प्रयोग में अकुशल है और
(उ २४१९,१०) भाषा के विविध प्रकारों को नहीं जानता, वह यदि क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, वाचालता किंचित् भी नहीं बोलता है, तब भी वचनगुप्त नहीं है। और विकथा --इन आठ स्थानों का वर्जन कर प्रज्ञावान् जो वाणी के प्रयोग में कुशल है और उसके अनेक मुनि यथासमय निरवद्य और परिमित वचन बोले । भेदों को जानता है, वह दिनभर बोलता हुआ भी वचन
गुप्त है।
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