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सान्निपातिक भाव
सर्वघाति और देशघाति ।
सर्वघाति प्रकृतियों का जघन्यतः भी द्विस्थानक रस बंध होता है, एक स्थानक रसबंध नहीं होता । क्षपकश्रेणि-आरोहण में भी सूक्ष्मसम्परायगुणस्थान के चरम समय में भी केवलज्ञानावरण केवलदर्शनावरण का रसबंध द्विस्थानक ही होता है, एकस्थानक नहीं ।
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देशघाति प्रकृतियों का रसबंध श्रेणिआरोहण से पूर्व द्विस्थानक आदि ही होता है । श्रेणिआरोहण के समय अनिवृत्तिबादर गुणस्थान के संख्यात भाग बीत जाने पर सतरह प्रकृतियों का एकस्थानक रसबंध सम्भव है ।
सतरह प्रकृतियां ये हैं- ज्ञानावरण की प्रथम चार, दर्शनावरण की प्रथम तीन पुरुषवेद, संज्वलनकषायचतुष्क और अंतराय कर्म की पांच प्रकृतियां । शेष अशुभ प्रकृतियों का इस गुणस्थान में बंध ही नहीं होता ।
उपशम और क्षयोपशम में अन्तर
तथा
सो चेव नणूवसमो उइए खीणम्मि सेसए समिए । सुहुमोदयता मीसे न तूवसमिए विसेसोऽयं ॥ वेएइ संतकम्मं खओवसमिएसु नाणुभाव सो । उवसंतकसाओ पुण वेएइ न संतकम्मं पि ॥ (विभा १२९२, १२९३ ) उपशम में उदय प्राप्त कषाय क्षीण हो जाता शेष कषाय का अनुदय रहता है । क्षयोपशम में क्षय और उपशम होने पर भी सूक्ष्म उदय यानी प्रदेशोदय चालू रहता है । उपशम में विद्यमान कर्म का वेदन नहीं होता । क्षयोपशम में विद्यमान कर्म का प्रदेशोदय में वेदन होता है, विपाकोदय में वेदन नहीं होता है । १२. पारिणामिक भाव की परिभाषा
परि समंता णामो जं जं जीवं पोग्गलादियं दव्वं जं जं अवत्थं पावति तं अपरिचत्तसरूवमेव तथा परिणमति सा किरिया परिणामितो भावो भण्णति ।
( अनुचू पृ ४४)
परि का अर्थ है चारों ओर । नाम का अर्थ हैजीव, पुद्गल आदि की विभिन्न अवस्थाओं में परिणति । अपने स्वरूप को छोड़े बिना जो परिणमन होता है, वह पारिणामिक भाव है ।
परीति - सर्वप्रकारं नमनं जीवानामजीवानां
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च
भाव
जीवत्वादिस्वरूपानुभवनं प्रति प्रह्वीभवनं परिणामः । ( उशावृप ३३ ) जीव और अजीव का अपने स्वरूप के अनुभव में (परिणमन में) पूर्णतः संलग्न होना परिणाम है। उससे होने वाली अवस्था पारिणामिक भाव है । १३. पारिणामिक भाव के प्रकार
पारिणामिए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - साइपारिणामिए य अणाइपारिणामिए य । ( अनु २८६ ) पारिणामिक भाव के दो प्रकार हैं - सादिपारिणामिक और अनादि पारिणामिक | सादि पारिणामिक
साइपारिणामिए अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा - जुणसुरा जुण्णगुलो, जुण्णघयं जुण्णतंदुला चेव । अब्भा य अब्भरुक्खा, संझा गंधव्वनगरा य ॥ उक्कावायादिसादागज्जियं विज्जू निग्धाया जूवया जक्खालित्ता धर्मिया । ( अनु २८७ ) सादि पारिणामिक के अनेक प्रकार हैं, जैसेजीर्ण सुरा, जीर्ण गुड़, जीर्ण घी, जीर्ण चावल, अभ्र, अभ्रवृक्ष, संध्या, गन्धर्वनगर, उल्कापात, दिशादाह, गर्जन, विद्युत् निर्घात, यूपक, यक्षादीप्त, धूमिका आदि । अनादि पारिणामिक
अणाइ पारिणामिए - धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए जीवत्थिकाए पोग्गलत्थिकाए अद्धासमए लोए अलोए भवसिद्धिया अभवसिद्धिया । ( अनु २८८ )
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, अध्वासमय, लोकअलोक, भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक- ये अनादिपारिणामिक भाव हैं ।
१४. सान्निपातिक भाव
सन्निवाइए - एएसि चेव उदइय उवस मिय-खइयखओवसमिय- पारिणामियाणं तिगसंजोएणं चउक्कसंजोएणं सव्वे से सन्निवाइए नामे ।
भावाणं दुगसंजोए पंचगसंजोएणं जे निप्पज्जइ ( अनु २८९ ) औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक भावों में दो के संयोग से, तीन के संयोग से, चार के संयोग से और पांच के संयोग से जो भाव निष्पन्न होते हैं, वे सब सान्निपातिक भाव हैं ।
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