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देशघाति-सर्वघाति प्रकृतियां : एक स्थानक...
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भाव
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और नकः । त्रयाणां कर्षाणामावर्त्तने कृते सति एकः कर्षोऽअंतराय-इन चार घातिकर्मों का क्षयोपशम होता है। वशिष्ट: त्रिस्थानकः । चतुण्ाँ कर्षणामावर्त्तने कृते सति
(घातिकर्म की प्रकृतियां दो तरह की होती हैं---- उद्धरति य एक: कर्षः स चतु:स्थानकः । एकस्थानकोऽपि सर्वघाति और देशघाति ।
च रसो जललवबिन्दुचुलुकाईचुलुकप्रसृत्यञ्जलिकरकसर्वघाति-केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, कुम्भद्रोणादिप्रक्षेपात् मन्दमन्दतरादिबहुभेदत्वं प्रतिपद्यते, पांच निद्रा, बारह कषाय, मिथ्यात्व ।
एवं द्विस्थानकादयोऽपि, एवं कर्मणामपि चतुःस्थानकादयो देशघाति -चार ज्ञानावरण, तीन दर्शनावरण. रसा भावनीयाः।
(नन्दीमव प ७७,७८) संज्वलन क्रोध-मान-माया-लोभ, नोकषाय, पांच केवलज्ञानावरणीय आदि सर्वघाति प्रकृतियों के अन्तराय । --- कर्मग्रन्थ भाग ५ गाथा १३,१४ । रसस्पर्धक भी सर्वघाति होते हैं। देशघाति प्रकृतियों के
इनके आधार पर क्षयोपशम के भी दो प्रकार बन रसस्पर्धक देशघाति भी होते हैं और सर्वघाति भी । जाते हैं
चतु:स्थानक, त्रिस्थानक रस वाले स्पर्धक सर्वघाति होते १. देशघाति कर्मप्रकृतियों का क्षयोपशम ।
हैं। द्विस्थानक रस वाले स्पर्धक देशघाति और सर्वघाति २. सर्वघाति कर्मप्रकतियों का क्षयोपशम ।
दोनों होते हैं। एकस्थानक रस वाले स्पर्धक देशघाति ही देशघाति कर्मप्रकतियों के क्षयोपशम काल में संबद्ध
होते हैं । इस प्रकार रसविपाकी प्रकृतियों के चार प्रकार प्रकति का मंद विपाकोदय रहता है। मंद विपाक अपने
१. एकस्थानक रस आवार्य गुण के विकास को रोक नहीं सकता । इस
३. त्रिस्थानक रस अवस्था में सर्वधाति रस वाला कोई भी दलिक उदय में
२. द्विस्थानक रस ४. चतुःस्थानक रस । नहीं रहता।
शुभ प्रकतियों का रस क्षीर और खांड जैसा तथा
अशुभ प्रकृतियों का रस घोषातकी (चिरायता) और सर्वघाती कर्मप्रकतियों के क्षयोपशम-काल में विपा
नीम जैसा होता है। कोदय सर्वथा नहीं रहता, केवल प्रदेशोदय रहता है। केवलज्ञानावरण व केवलदर्शनावरण-इन दो सर्व
क्षीर आदि का जो स्वाभाविक रस होता है, वह
एकस्थानक रस कहलाता है। दो कर्ष (तोला) क्षीर को घाति कर्मप्रकृतियों का क्षयोपशम नहीं होता।
आवर्तित करने (उबालने) पर जो एक कर्ष अवशिष्ट शुभ अध्यवसाय, शुभ लेश्या और शुभ योग के द्वारा
रहता है, वह द्विस्थानक रस है। तीन कर्षों को आवर्तित । कर्मप्रकतियों के तीव्र विपाकोदय को मंद विपाकोदय में
करने पर जो एक कर्ष बचता है, वह त्रिस्थानक रस है। और विपाकोदय को प्रदेशोदय में बदलने की प्रक्रिया चालू
चार कर्षों को आवर्तित करने पर जो एक कर्ष बचता है, रहती है। औदयिक भाव और क्षायोपशमिक भाव का
वह चतुःस्थानक रस है। एकस्थानक आदि रस अंजलि, संघर्ष निरन्तर चलता है । देखें- अनुयोगद्वार सूत्र
करक, कुम्भ, द्रोण आदि में प्रक्षिप्त करने पर मंद, २७१-२८७ का टिप्पण)
मंदतर आदि अनेक भेदों में विभक्त हो जाते हैं। इसी १. देशघाति-सर्वघाति प्रकृतियां : एक स्थानक प्रकार कर्मों के एकस्थानक आदि रस ज्ञातव्य हैं। ये आदि रस
रस उत्तरोत्तर अनंतगुणा शक्ति वाले हैं। केवलज्ञानावरणीयादिरूपाणां सर्वघातिनीनां प्रकृतीनां जो घाएइ सविसयं सयलं सो होइ सव्वघाइरसो । सर्वाण्यपि रसस्पर्द्धकानि सर्वघातीनि, देशघातिनीनां पुनः सो निच्छिद्दो निद्धो तणुओ फलिहब्भहरविमलो॥ कानिचित् सर्वघातीनि कानिचिद्देशघातीनि "
देसविघाइत्तणओ इयरो कडकंबलंसूसंकासो। चउतिद्वाणरसाणि य सव्वघाईणि होति फड्डाणि । विविहच्छिददहभरिओ अप्पसिणेहो अविमलो अ॥ ट्राणियाणि मीसाणि देसघाईणि सेसाणि ॥
(नन्दीमवृ प ७९) घोसाडइनिबुवमो असुभाण सुभाण खीरखंडुवमो । सर्वधाति प्रकतियों का रस यद्यपि ताम्रभाजन के क्षीरादिरसश्च स्वाभाविक एकस्थानकः। द्वयोस्तु कर्षयो- समान निश्छिद्र, घृत की तरह अति स्निग्ध, द्राक्षा की रावर्त्तने कृते सति योऽवशिष्यते एकः कर्षकः स द्विस्था- तरह तनुप्रदेश से उपचित, स्फटिक और अभ्रक की
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