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भव्य
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भव्य और ग्रन्थिभेद
भाव हैं। भव्यत्व की अपेक्षा पारिणामिक भाव अनादि- कि पूण जा संपत्ती सा जोग्गस्सेव न उ अजोग्गस्स। सांत भी है, क्योंकि सिद्धावस्था में भध्यत्व-अभव्यत्व तह जो मोक्खो नियमा सो भव्वाणं न इयरेसिं । भाव की निवृत्ति हो जाती है। जीवत्व और अभव्यत्व
(विभा १८३३-१८३६) ये दोनों पारिणामिक भाव अनादि-अनंत हैं। (मति शिष्य ने प्रश्न किया कि सारे भव्य जीव किसी भी अज्ञान आदि भाव अभव्य की अपेक्षा अनादि-अपर्यवसित काल में सिद्ध नही होंगे तो फिर उनका भव्यत्व कैसा? हैं-द्र. भाव)
क्या वे अभव्य नहीं माने जा सकते ? ३. भव्य-अभव्य अनंत
सब भव्य सिद्ध नहीं होंगे। भव्य का अर्थ है..."अणंता भवसिद्धिया, अणंता अभवसिद्धिया । सिद्धिगमन के योग्य । योग्य होने मात्र से कोई सिद्ध नहीं
(नन्दी १२४) होता । स्वर्ण, काष्ठ या पाषाण के प्रतिमा के योग्य होने षण्मासपर्यन्ते चावश्यमेकस्य भव्यस्य जीवस्य सिद्धि- पर भी उनकी सर्वत्र प्रतिमा नहीं बनायी जाती। प्रतिमा गमनात् ।
की निष्पत्ति योग्य सामग्री मिलने पर ही होती है। पर एवं भव्वुच्छेओ कोट्ठागारस्स वा अवचओ त्ति । सामग्री के अभाव में भी स्वर्ण, काष्ठ आदि द्रव्यों में प्रतिमा तं नाणंतत्तणओऽणागयकालं-बराणं व ॥ बनने की योग्यता को नकारा नहीं जा सकता। प्रतिमा जं चातीताणागयकाला तुल्ला जओ य संसिद्धो। योग्य वस्तु से प्रतिमा होती ही है-यह नियम नहीं बनाया एक्को अणंतभागो भव्वाणमईयकालेणं ॥ जा सकता। वियुक्त होने योग्य सोने और मिट्टी को अग्नि, एस्सेण तत्तिउ च्चिय जुत्तो जं तो वि सव्वभव्वाणं । ताप आदि उचित सामग्री के अभाव में अलग-अलग नहीं जुत्तो न समुच्छेओ होज्ज मई कहमिणं सिद्धं ॥ किया जा सकता। इसी प्रकार मिति के भव्वाणमणंतत्तणमणंतभागो व किह व मुक्को सि। की सम्प्राप्ति होने पर ही भव्य जीव सिद्ध हो सकता है, कालादओ व मंडिय ! मह वयणाओ व पडिवज्ज ॥
सामग्री के अभाव में नहीं। सामग्री न मिलने मात्र से वह (विभा १८२७-१८३० मवृ पृ ६५६)
अभव्य नहीं हो जाता। किन्तु जब कभी मुक्ति होगी, प्रत्येक छह मास बाद एक भव्य जीव अवश्य सिद्ध
भव्य की ही होगी, अभव्य की नहीं। होता है -निरन्तर इस क्रम से सिद्ध होने पर तो एक दिन संसार भव्य जीवों से शून्य हो जाएगा, जैसे थोडा- ५. भव्य और ग्रन्थिभेद थोड़ा धान्य निकालते रहने से एक दिन धान्य का कोष्ठा- भव्याः सम्यग्दर्शनादिगुणयोग्या भिन्नग्रंथयः । गार खाली हो जाता है। पर ऐसा नहीं होता, क्योंकि
(उशाव प ७१२) अनागतकाल की अनन्त समयराशि और अनन्त आकाश सम्यक-दर्शन आदि गुणों के योग्य जीव भव्य की प्रदेशराशि की तरह भव्य जीवराशि अनन्तानन्त है। कहलाते हैं । भव्य जीव ही ग्रंथिभेदन में समर्थ होते हैं।
अतीतकाल और अनागतकाल तुल्य हैं। अतीतकाल जे अभवितो सो तं गंठिं ण समत्थो भिदितुं तेण में भव्यों का अनन्तवा भाग सिद्ध हुआ है। अनागतकाल गंठियसत्तो, गंठिए वा सत्तो। तत्थ पूण अंतरे इढिविसेसं में भी भव्यों का अनन्तवां भाग ही सिद्ध होगा। अत: दठण तित्थगराणं अणगाराणं वा ताहे पव्वयति । तम्मूसब भव्यों के उच्छेद का प्रसंग ही नहीं आता। भव्य
लागं देवलोगं गच्छति । जो भविओ तस्स तमि काले और अभव्य-दोनों प्रकार के जीव अनंत हैं।
जति कोति संबोहेज्ज अहवा कोति सयं चेव संबूज्झति ४. सब भव्य सिद्ध नहीं होते
तस्स एत्थ सुयसामाइयस्स लंभो भवति । भव्वा वि न सिज्झिरसंति केइ कालेण जइ वि सव्वेण ।
___ (आवचू १ पृ १०१) नण ते वि अभव्व च्चिय किंवा भव्वत्तणं तेसिं। अभव्य प्राणी ग्रन्थि भेदन में समर्थ नहीं है। वह भण्णइ भव्वो जोग्गो न य जोग्गत्तेण सिझए सव्वो। तीर्थंकरों अथवा मुनियों की ऋद्धिविशेष को देखकर जह जोग्गम्मि वि दलिए सव्वम्मि न कीरए पडिमा ॥ प्रव्रजित हो सकता है और देवलोक में जा सकता है। जह वा स एव पासाण-कणगजोगो विओगजोग्गो वि। जो भव्य है, वह स्वयं अथवा दूसरों से सम्बुद्ध हो श्रुतन विजज्जइ सव्वो च्चिय स विजुज्जइ जस्स सपत्ती । सामायिक प्राप्त करता है।
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