________________
प्रतिक्रमण
४३२
प्रतिक्रमण के दृष्टांत
उतार देना। जो उन्हीं पैरों लौट आए, उसे मत पानी के स्रोतों-तालाब, वापी, सरोवर आदि में विष मारना । एक दिन दो ग्रामीण व्यक्ति अजान में उसमें मिला दिया। आक्रमणकारी राजा को यह ज्ञात हो घुस गए। आरक्षकों ने उन्हें पकड़ा। एक ने उइंडतापूर्वक गया। उसने अपने स्कंधावार में यह घोषणा करवाई कि कहा--भीतर आ गए तो क्या हुआ ? रक्षकों ने उसे यहां का सारा खाद्य और पेय विषमिश्रित है। कोई भी मार डाला। दूसरे ने गिड़गिड़ाते हुए कहा-आप जैसा उसे न खाए । जिन सुभटों ने घोषणा के अनुसार बरताव कहेंगे, वैसा करूंगा। मुझे न मारें। रक्षकों ने कहा- किया, वे जीवित रह गए, और जिन्होंने घोषणा की आगे मत जाना। वह उन्हीं पैरों लौट आया। उसके अवहेलना की, वे मृत्यु को प्राप्त हो गए। प्रतिक्रमण ने उसे बचा लिया।
जो दोषों से दूर रहता है, वह चारित्र की सही २. प्रतिचरण--अकार्य का परिहार और कार्य में अनुपालना करता है। प्रवृत्ति ।
५. निवृत्ति-अशुभ भावों से निवर्तन। एक धनाढ्य वणिक् ने विशाल हर्म्य बनाया। एक एक गच्छ में अनेक मुनि थे। एक तरुण मुनि बार वह वणिक अपना हर्म्य अपनी पत्नी को संभला कर व्युत्पन्न था। आचार्य उसको गणधारण के योग्य समझदेशान्तर चला गया। कुछ समय बीता। हम्यं का एक कर सदा बढ़ाते रहते । एक बार वह आवेश के वशीभूत खंड गलित-पलित होकर गिर गया। सेठानी ने कहा- होकर गण से निकल गया। मार्ग में जाते-जाते उसने एक इतने विशाल मकान का एक कोना गिर जाने से क्या गीत सुनाअनर्थ होगा? उसी मकान के एक ओर पीपल का अंकुर 'तरितव्वा य पतिण्णया, मरितव्वं वा समरे समस्थएणं । अंकुरित हो गया। सेठानी ने लापरवाही बरती। असरिसवयणुप्फेसया, न हु सहितव्वा कुले पसूयएणं ॥' कालान्तर में उसके विस्तार से सारा हर्म्य ढह पड़ा। उसने सोचा, गीत में कितना सुन्दर कहा है-- सेठानी ने सोचा-यदि मैं प्रारंभ से ही जागरूक रहती 'व्यक्ति को सत्यप्रतिज्ञ होना चाहिए । सामान्य व्यक्तियों तो यह दशा नहीं होती।
का अपलाप सहने से युद्ध में मर जाना अच्छा है।' जो दोषों की उपेक्षा करता है, वह संयम से भ्रष्ट । इस गीत-भावना से प्रेरित होकर वह मुनि पुन: गण में होकर दु:खी हो जाता है । जो प्रायश्चित्त के द्वारा दोषों आ गया। की विशुद्धि कर लेता है, वह चारित्र की अखंड आराधना
६. निदा-आत्म-संताप । कर सकता है।
एक राजा ने चित्रशाला के लिए दूर-दूर से चित्र३. परिहरण-अस्थानों-दोषों का परिहरण ।
कारों को बुलाया। कुछ चित्रकार स्थानीय थे। एक एक कूलपूत्र ने दो व्यक्तियों को दो-दो घड़े देकर
बार तत्रस्थ चित्रकार की कन्या अपने पिता के लिए कहा-जाओ, गोकूल से दूध ले आओ। दोनों गए। भोजन लेकर जा रही थी। राजा घोडे को सरपट घड़ों को दूध से भरकर, कावड़ में घड़े रख, घर की दौड़ाता हुआ उधर से निकला। लड़की ने सड़क से ओर प्रस्थित हए। जाने के दो मार्ग थे। एक ऋजु कितु हटकर अपनी जान बचाई। वह चित्रशाला में पिता की ऊबड़-खाबड़, दूसरा वक्र किन्तु निरापद । एक ऋजु माग प्रतीक्षा करने लगी। उस समय उसने मयूरपिच्छ का से चला। मार्ग ऊंचा-नीचा होने के कारण ठोकर लगी। चित्र बनाया। इतने में ही राजा चंक्रमण करता हआ दोनों घड़े फूट गए। दूसरा वक्र मार्ग से चला और घड़ों
वहां आया और उस चित्रगत मयूरपिच्छ को असली सहित घर पहुंच गया।
समझ कर हाथ से उठाना चाहा। नखों पर आघात विषम स्थानों का परिहार करने वाला सुखपूर्वक लगा। कन्या हंस पडी । राजा ने हंसने का कारण पूछा। लक्ष्य तक पहुंच जाता है।
लड़की निपुण थी। वह बोली-मेरी मंचिका के तीन ४. वारण-अपने आपको दोषों से दूर रखना ।
ही पाये हैं। आज तुम चौथे मिल गए । राजा ने कहा. एक राजा था। उसने पड़ोसी राज्य पर आक्रमण मैं चौथा कैसे ? कन्या ने उसको उसका रहस्य बताया कर दिया। पडोसी राजा ने सभी प्रकार के खाद्यों तथा और छह महीनों तक कथाओं में उलझाए रखा। कुछ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org