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चतुर्दशपूर्वी में ज्ञान चतुर्दशपूर्वी आमषिधि आदि लब्धियों से सम्पन्न प्रत्येकबुद्ध में पूर्व अधीत श्रुत की नियमा हैहोते हैं । चक्रवर्ती के साथ भी युद्ध कर सके, वैसी पुलाक जघन्यत: ग्यारह अंग, उत्कृष्टतः भिन्न दस पूर्व । लब्धि उनके पास होती है । जैसे चक्रवर्ती चौदह रत्नों पुलागबकुसपडिसेवणाकुसीला य उक्कोसेणं अभिन्नके अधिपति होते हैं, वैसे ही वे अक्षय ज्ञानकोष रूप दसपुव्वधरा कषायकुशीलनिर्ग्रन्थौ चतुर्दशपूर्वधरी। चौदह पूर्वो के ज्ञाता होते हैं।
जघन्येन पुलाकस्य श्रुतमाचारवस्तु नवमपूर्वे बकुशकुशील(चतुर्दशपूर्वी एक घट से हजार घट, एक पट से निर्ग्रन्थानां श्रुतमष्टौ प्रवचनमातरः । (उशावृ प २५८) हजार पट, एक कट से हजार कट, एक छत्र से हजार पुलाक, बकुश और प्रतिसेवनाकुशील-ये तीन छत्र और एक दंड से हजार दंड निर्मित कर दिखा प्रकार के निग्रंथ उत्कृष्टत: अभिन्न
होते हैं सकते हैं। देखें -भगवती ५।४।११२)
और कषायकुशील निग्रंथ चतुर्दशपूर्वधर होते हैं । पुलाक आगमनि!हण
निग्रंथ जघन्यत: नौवें पूर्व की आचारवस्तु के ज्ञाता
होते हैं और बकुश तथा कुशील निग्रंथ अष्ट प्रवचनचोद्दसपुव्वी कहिंपि कारणे समुप्पण्णे णिज्जूहइ,
__ माता के ज्ञाता होते हैं। दसपुब्बी पुण अपच्छिमो अवस्समेव णिज्जूहइ, ममंपि इमं कारणं समुप्पण, अहमवि निज्जुहामि दसवेया
१२. चतुर्दशपूर्वी का ज्ञान परस्पर तुल्य लियं ।
(दजिचू पृ ७) अक्खरलंभेण समा ऊणहिया होंति मइविसेसेहिं । ___ चौदहपूर्वी कारण उपस्थित होने पर नि!हण करते ते वि य मईविसेसे सुयनाणभंतरे जाण ॥ हैं । अन्तिम दशपूर्वी अवश्य नि!हण करते हैं । चौदहपूर्वी
(विभा १४३) आचार्य शय्यंभव ने कारण उपस्थित होने पर दशका- अक्षरलाभ की अपेक्षा से सभी चौदहपूर्वी तुल्य होते लिक का नि!हण किया।
हैं किंतु क्षयोपशम की विचित्रता से प्राप्त मतिविशेषों
की अपेक्षा से उनमें न्यूनाधिकता भी होती है। ये मति१०. पूर्वधर : दृष्टि और श्रुत
विशेष श्रुतानुसारी होने के कारण श्रतज्ञान के अन्तर्गत चोद्दस दस य अभिन्ने नियमा सम्मं तु सेसाए भयणा ..
ही हैं, मतिज्ञानान्तर्भावी नहीं हैं।
(विभा ५३४) चतुर्दशपूर्वी और पूर्ण दशपूर्वी नियम से सम्यक्दृष्टि
१३. चतुर्दशपूर्वी में ज्ञान की तरतमता : श्रुतहोते हैं । शेष अपूर्ण दशपूर्वी से आचारांगधर पर्यन्त में
निबद्ध भाव सम्यक्त्व की भजना है-वे सम्यकदष्टि भी हो सकते हैं जं चोद्दसपुव्वधरा छटाणगया परोप्परं होति । और मिथ्यादृष्टि भी।
तेण उ अणंतभागो पण्णवणिज्जाण, जं सुत्तं ।। इच्चेयं दुवालसंग गणिपिडगं चोद्दसपुव्विस्स सम्मसुयं, अणंतभागहीणे वा, असंखेज्जभागहीणे वा, संखेज्जअभिण्णदसपुव्विस्स सम्मसुयं, तेण परं भिण्णेसु भयणा। भागहीणे वा, संखेज्जगुणहीणे वा, असंखेज्जगुणहीणे वा,
(नन्दी ६६) अणंतगुणहीणे वा । अणंतभागब्भहिए वा, असंखेज्जद्वादशांग गणिपिटक चतुर्दशपूर्वी से अभिन्नदसपूर्वी भागब्भहिए वा, संखेज्जभागब्भहिए वा, संखेज्जगुणब्भहिए पर्यंत सम्यक् श्रुत होता है। शेष भिन्नदसपूर्वी आदि में वा, अणंतगुणब्भहिए वा। सम्यक् श्रुत की भजना है।
यदि पूनर्यावन्तः प्रज्ञापनीया भावास्तावन्तः सर्वेऽपि
सूत्रे निबद्धा भवेयुः, तदा तदवेदिनां तुल्यतैव स्यात्, न ११. पूर्व और प्रत्येकबुद्ध आदि
षट्स्थानपातित्वम् । (विभा १४२ मवृ पृ ७५,७६) पत्तेयबुद्धाणं पुव्वाधीतं सुतं णियमा भवति-जहण्णेणं
चौदहपूर्वी परस्पर षट्स्थानपतित--ग्रहणक्षमता में एक्कारसंगा, उक्कोसेणं भिण्णदसपुव्वा ।
न्यूनाधिक होते हैं। यदि सारे प्रज्ञापनीयभाव श्रुतनिबद्ध (नन्दोचू पृ २६) हों तो उनके ज्ञाता में तरतमता नहीं होती, वे सब समान
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