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चतुर्दशपूर्वी
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चौदह पूर्व : एक परिचय पूर्व विषय
| पद-परिमाण | वस्तु चूलिका-वस्तु १.उत्पाद द्रव्य और पर्यायों की उत्पत्ति
१ करोड । १० । ४ २. अग्रायणीय द्रव्य, पर्याय और जीवों का परिमाण
| ९६ लाख ३. वीर्यप्रवाद अजीवों तथा सकर्म-अकर्म जीवों के वीर्य का वर्णन ७० लाख ८ ८ ४. अस्तिनास्तिप्रवाद पदार्थ की सत्ता-असत्ता का निरूपण
।६० लाख ___ | १८ | १० ५. ज्ञानप्रवाद | पांच ज्ञानों का भेद-प्रभेद सहित प्ररूपण
एक कम १ करोड १२ | ० ६.सत्यप्रवाद सत्य और असत्य के भेदों का वर्णन
| १ करोड़ छह ।२ । ० ७. आत्मप्रवाद नाना नयदृष्टियों से आत्मा का निरूपण | २६ करोड़ |१६ | ० ८. कर्मप्रवाद कर्म का स्वरूप और प्रकार
१ करोड ८० हजार ३० । ० ९. प्रत्याख्यानप्रवाद| प्रत्याख्यानों का स्वरूप वर्णन
| चौरासी लाख | २० | . १०. विद्यानुप्रवाद | विशिष्ट विद्याओं का वर्णन
१ करोड १० लाख १५ । ० ११. अवन्ध्य संयमयोगों की सार्थकता, असंयमयोगों की व्यर्थता | २६ करोड । १२ । ० १२. प्राणायुप्रवाद प्राणों के भेद-प्रभेद का प्ररूपण
१ करोड ५६ लाख १३ । । १३. क्रियाविशाल क्रियाओं के भेद-प्रभेद का निरूपण
| ९ करोड़ ।३० । . १४. लोकबिन्दुसार | सर्वाक्षरसन्निपात लब्धि का निरूपण
| १२१ करोड़ । २५ | . ७. परीषह प्रविभक्ति का उद्गम : पूर्व वादपूर्व से, वाक्यशुद्धि (सातवां अध्ययन) सत्यप्रवादपूर्व
अस्य कर्मप्रवादपूर्वसप्तदशप्राभृतोद्धततया वस्तुतः स आर शष सात अध्ययन प्रत्याख्यान पूव का ता सुधर्मास्वामिनैव जम्बूस्वामिनं प्रति प्रणीतत्वात् । वस्तु से उद्धृत किए गए हैं।
(उशाव प १३२) दूसरी मान्यता के अनुसार इसका निर्यहण आर्य सुधर्मा ने जम्बूस्वामी को 'परीषहप्रविभक्ति' गणिपिटक द्वादशांगी से किया गया । (उत्तराध्ययन का दूसरा अध्ययन) की वाचना दी । यह ६. चतुर्दशपूर्वी अध्ययन कर्मप्रवादपूर्व के सतरहवें प्राभृत से उद्धृत है। ते किर चउदसपुब्बी, सव्वक्खरसन्निवाइणो निउणा ।... कम्मप्पवायपुव्वे सत्तरसे पाहुडंमि जं सुत्तं ।
(उनि ३१७) सणयं सोदाहरणं तं चेव इहंपि णायव्वं ।।
चोहसुपुव्वीणं अजिणाणं जिणसंकासाणं सव्वक्खर
(उनि ६९) सन्निवादीणं जिणोविव अवितहं वागरमाणाणं"। कर्मप्रवादपूर्व के सतरहवें प्राभृत में परीषहों का नय
(आवचू १ पृ १५९) और उदाहरण सहित निरूपण है ।
चौदहपूर्वी जिन नहीं होते, जिन के सदृश होते हैं । ८. दशवकालिक का उद्गम
वे जिन की तरह यथार्थभाषी होते हैं । उन्हें सर्वाक्षर
सन्निपात लब्धि प्राप्त होती है।। आयप्पवायपुव्वा णिज्जूढा होई धम्मपण्णत्ती।
आगमो चोद्दसपुव्वा णिट्ठ पत्ता जाव संयभूरमणे वि कम्मप्पवायपुव्वा पिंडस्स तु एसणा तिविधा ॥ जं मच्छओ करेति तं पि जाणति । (आवच १ पृ ५४३) सच्चप्पवातपुव्वा णिज्जूढा होति वक्कसुद्धी उ। चतुर्दशपूर्वी स्वयंभूरमण समुद्र के मत्स्यों की चेष्टाएं अवसेसा णिज्जूढा णवमस्स उ ततियवत्थूतो॥ भी जान सकते हैं। बितिओ वि य आदेसो गणिपिडगातो दुवालसंगातो। ऋद्धयश्चामखैषध्यादयश्चक्रवर्तिनमपि योधयेदित्येवं
(दनि ५-७)
विधपुलाकलब्ध्यादयश्च महत्य एवास्य भवन्ति, सन्ति दशवैकालिक का धर्मप्रज्ञप्ति (चौथा अध्ययन) चास्यापि चतुर्दशरत्नोपमानि सकलातिशयनिधानानि आत्मप्रवादपूर्व से, पिण्डैषणा (पांचवां अध्ययन) कर्मप्र- पूर्वाणि ।
(उशावृ प ३५०)
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