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अंगप्रविष्ट
पण्णविज्जंति परूविज्जंति दंसिज्जंति
आघविज्जंति निदंसिज्जंति ।
से एवं आया, एवं नाया, एवं विष्णाया, एवं चरणकरण - परूवणा आघविज्जइ । ( नन्दी ८१ )
आचार में श्रमण-निर्ग्रन्थों के आचार, गोचर, विनय, वैनयिक, शिक्षा, भाषा-अभाषा, चरण - करण, यात्रामात्रा, वृत्तियों का निरूपण किया गया है। संक्षेप में आचार पांच प्रकार का है, जैसे ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तप - आचार, वीर्याचार |
आचार की वाचनाएं परिमित हैं, अनुयोगद्वार ( उपक्रम, अध्ययन ) संख्येय हैं, वेढा (वेष्टक छंद) संख्येय हैं, श्लोक (अनुष्टुप् आदि वृत्त ) संख्येय हैं, निर्युक्तियां संख्येय हैं और प्रतिपत्तियां (मतांतर) संख्येय हैं ।
यह अंग की दृष्टि से पहला अंग है । इसके दो श्रुतस्कंध, पच्चीस अध्ययन, पचासी उद्देशन-काल, पचासी समुद्देशन-काल, पद-परिमाण से अठारह हजार पद, संख्ये अक्षर, अनन्त गम ( अर्थ - परिच्छेद) और अनन्त पर्यव हैं। इसमें परिमित त्रस जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत, कृत निबद्ध और निकाचित जिनप्रज्ञप्त भावों का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन और निदर्शन किया गया है ।
इसका सम्यक् अध्ययन करने वाला 'एवमात्मा'आचारमय, ' एवं ज्ञाता' और 'एवं विज्ञाता' हो जाता । इस प्रकार आचार में चरण-करण - प्ररूपणा का आख्यान किया गया है ।
( नोट वाचना, अनुयोगद्वार, वेष्टक, श्लोक, निर्युक्ति, प्रतिपत्ति, अक्षर, गम, पर्यंव, त्रस, स्थावरइनकी संख्या सूत्रकृतांग आदि शेष ग्यारह अंगों में आचारांग के समान ही जान लेनी चाहिये । )
सूत्रकृतांग
.... सूयगडे णं लोए सूइज्जइ, अलोए सूइज्जइ, लोलो इज्जइ । जीवा सूइज्जति, अजीवा सूइज्जंति, जीवाजीवा सूइज्जति । ससमए सूइज्जइ, परसमए सूइज्जइ, ससमय-परसमए सूइज्जइ ।
सूयगडे णं आसीयस्स किरियावाइसयस्स, चउरा - सीइए अकिरियावाईणं, सत्तट्टीए अण्णाणियवाईणं, बत्तीसाए वेणइयवाईणं - तिन्हं तेसद्वाणं पावादुय-सयाणं वूहं किच्चा ससमए ठाविज्जइ । ...
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स्थानांग
सेणं अंगट्टयाए बिइए अंगे, दो सुयक्खंधा, तेवीसं अज्झयणा, तेत्तीसं उद्देसणकाला, तेत्तीसं समुद्देसणकाला, छत्तीसं पयसहस्साणि पयग्गेणं । ( नन्दी ८२)
सूत्रकृत में लोक की, अलोक की तथा लोक- आलोकदोनों की सूचना दी गई है। जीवों की, अजीवों की तथा जीव - अजीव - दोनों की सूचना दी गई है । स्वसमय की, परसमय की तथा स्वसमय परसमय दोनों की सूचना गई है।
सूत्रकृत में एक सौ अस्सी क्रियावादियों, चौरासी अक्रियावादियों, सड़सठ अज्ञानवादियों तथा बत्तीस वैनयिकवादियों - इस प्रकार तीन सौ तिरसठ प्रावादुकोंअन्यतीर्थिकों का व्यूह ( प्रतिक्षेप) कर स्वसमय की स्थापना की गई है ।
यह अंग की दृष्टि से दूसरा अंग है । इसके दो श्रुतस्कन्ध, तेईस अध्ययन, तेतीस उद्देशनकाल, तेतीस समुद्देशनकाल हैं । पदप्रमाण से इसके छत्तीस हजार पद हैं ।
स्थानांग
.....ठाणे णं जीवा ठाविज्जंति, अजीवा ठाविज्जंति, जीवाजीवा ठाविज्जंति । ससमए ठाविज्जइ, परसमए ठाविज्जइ, ससमय-परसमए ठाविज्जइ । लोए ठाविज्जइ, अलोए ठाविज्जइ, लोयालोए ठाविज्जइ ।
ठाणे णं टंका, कूडा, सेला, सिहरिणो, पब्भारा, कुंडाई, गुहाओ, आगरा, दहा, नईओ आघविज्जति ।
ठाणे णं एगाइयाए एगुत्तरियाए वुड्ढीए दसट्ठाण - विवढियाणं भावाणं परूवणा आघविज्जइ । ''''
सेणं अंगट्टयाए तइए अंगे एगे सुयक्बंधे, दस अभयणा, एगवीसं उद्देसणकाला, एगवीसं समुद्देसणकाला, बावर्त्तारं पयसहस्साई पयग्गेणं... | ( नन्दी ८३ )
तथा जीवस्वसमय की,
स्थानाङ्ग में जीवों की, अजीवों की अजीव दोनों की स्थापना की गई है । परसमय की तथा स्वसमय-परसमय- -दोनों की स्थापना की गई है । लोक की, अलोक की तथा लोक- अलोकदोनों की स्थापना की गई है ।
इसमें टंक, कूट, शैल, शिखरी, प्राग्भार, कुंड, गुफा, आकर, द्रह और नदी – इन सबका प्रतिपादन किया गया है ।
स्थानांग में एक-एक की अधिकता से अर्थात् एक
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