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वीर्यप्रवाद पूर्व रयंति द्वति य । अण्णायरियमतेणं पुण पुव्वगतसुत्तत्थो पूर्वगत चौदह प्रकार का है --१. उत्पाद २. पुव्वं अरहता भासितो, गणहरेहि वि पुवगतसुतं चेव अग्रायणीय ३. वीर्यप्रवाद ४. अस्तिनास्तिप्रवाद ५. ज्ञानपुव्वं रइतं पच्छा आयाराइ। (नन्दीचू पृ ७५) प्रवाद ६. सत्यप्रवाद ७. आत्मप्रवाद ८. कर्मप्रवाद ९.
तीर्थकर तीर्थप्रवर्तन के समय गणधरों के समक्ष प्रत्याख्यानप्रवाद १०. विद्यानुप्रवाद ११. अवंध्य सर्वप्रथम पूर्व का व्याकरण करते हैं। ये पूर्व समस्त सूत्रों (कल्याण) १२. प्राणायुप्रवाद १३. क्रियाविशाल १४. के आधारभूत होते हैं । ये सर्वप्रथम व्याकृत होने के कारण लोकबिन्दुसार । 'पूर्व' कहलाते हैं। गणधर जब सूत्र की रचना करते हैं, उत्पाट पर्व तब आचार आदि के क्रम से उनकी रचना और स्थापना
पढमं उप्पायपुव्वं, तत्थ सव्वदव्वाणं पज्जवाण य होती है। दूसरा मत यह है कि तीर्थंकरों ने सर्वप्रथम
उप्पायभावमंगीकाउं पण्णवणा कता, तस्स पदपरिमाणं पूर्वगत को व्याकृत किया और गणधरों ने भी सबसे पहले
एक्का पदकोडी ।
(नन्दीचू पृ ७५) पूर्वगत की ही रचना की और बाद में आचार आदि की
उत्पादपूर्व चौदह पूर्वो में प्रथम है। इसमें उत्पादरचना हुई। यह मत अक्षररचना की दृष्टि से है, स्थापना
भाव को लक्ष्य कर सब द्रव्यों और पर्यायों की की दृष्टि से नहीं। स्थापना की दृष्टि से आचारांग का
प्ररूपणा की गई है। इसका परिमाण है---एक करोड़ स्थान पहला है।
पद। २. पूर्वो की रचना और गणधर
अग्रायणीय पूर्व पूर्वाणि भगवद्भिर्गणधरैरुपनिबध्यन्ते । पूर्व करणात्
बितियं अग्गेणीयं, तत्थ वि सव्वदव्वाण पज्जवाण य पूर्वाणीति पूर्वाचार्यप्रदर्शितव्युत्पत्तिश्रवणात
सव्वजीवविसेसाण य अग्ग-परिमाणं वणिजइ ति सकलवाङ्मयस्यावतारो । न खलु तदस्ति यत्पूर्वेषु नाभि
अग्गेणीतं, तस्स पदपरिमाणं छण्णउति पदसतसहस्सा । हितम् । (आवमवृ प ४८)
(नन्दीचू पृ ७५) पूर्वो की रचना गणधर करते हैं। पूर्वाचार्यों के
अग्रायणीय दूसरा पूर्व है। इसमें सब द्रव्यों, पर्यायों अनुसार गणधर सबसे पहले पूर्वो की रचना करते हैं।
और सब जीवों का अग्र/परिमाण वर्णित है। इसका इसलिए ये पूर्व कहलाते हैं। पूर्वो में समस्त वाङमय का
परिमाण है-छियानवे लाख पद । अवतरण हो जाता है । जो पूर्वो में न कहा गया हो, वैसा कुछ है ही नहीं।
अग्रायणीय पूर्व का एक उद्धरण उसभसेणो णाम भरहस्स रन्नो पुत्तो सो धम्म सोऊण अग्गेणीअंमि य जहा दीवायण जत्थ एग तत्थ सयं । पव्वइतो। तेण तिहिं पुच्छाहिं चोद्दसपुव्वाइं गहिताई, जत्थ सयं तत्थेगो हम्मइ वा भुजए वावि ।। उप्पन्ने विगते धुवे। (आवचू १ पृ १८२) अग्गेणीते विरिते अत्थिणत्थिप्पवायपुव्वे य पाढो
चक्रवर्ती भरत का पुत्र ऋषभसेन धर्मोपदेश सुनकर जत्थ एगो दीवायणो भुजति तत्थ दीवायणसयं भुजति प्रवजित हुआ। उसने उत्पन्न, विगम और ध्रुव- जत्थ सयं दीवायणा भुंजंति तत्थ एगो दीवायणो भुंजति, इन तीन निषधाओं में चौदह पूर्वो को ग्रहण किया । एवं हमइत्ति जाव तत्थ एगो दीवायणो हम्मति । ३. पूर्व के प्रकार
सम्प्रदायाभावान्न प्रतन्यते । पुव्वगए चउद्दसविहे पण्णत्ते, तं जहा–१. उप्पाय
(आवनि १०२२ चू १ पृ ६००; हावृ १ पृ ३१०) पुव्वं २. अग्गेणीयं ३. वीरियं ४ अत्थिनत्थिप्पवायं वीर्यप्रवाद पूर्व ५ नाणप्पवायं ६. सच्चप्पवायं ७. आयप्पवायं ८. ततियं वीरियप्पवायं, तत्थ वि अजीवाणं जीवाणं कम्मप्पवायं ९. पच्चक्खाणं १०. विज्जाणुप्पवायं ११. यसकम्मेतराण वीरियं प्रवदति ति वीरियप्पवादं, तस्स अवंझ १२. पाणाउं १३. किरियाविसालं १४. लोकबिंदू- वि पदपरिमाणं सरि पदसतसहस्सा। (नन्दीच पृ७५) सारं।
(नन्दी १०४) वीर्यप्रवाद तीसरा पूर्व है। इसमें अजीवों तथा
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