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(प्रथम तीन नरक पृथ्वियों में परमाधामिक देव (यौवन) में मेरी आंखों में असाधारण वेदना उत्पन्न हई। नारकीय जीवों को भिन्न-भिन्न प्रकार की वेदना देते हैं। पार्थिव ! मेरा समूचा शरीर पीड़ा देने वाली जलन से उनके कार्यों के विवरण के लिए देखें---सूत्रकृतांग
जल उठा । इन्द्र का वज्र लगने से होने वाली घोर वेदना नियुक्ति ५९-७५)।
के समान मेरी वेदना थी । विद्या और मन्त्र के द्वारा
चिकित्सा करने वाले प्राणाचार्य मेरी चिकित्सा करने के नाथ-जो योगक्षेम (अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त
लिए उपस्थित हुए। की सुरक्षा) करता है, वह नाथ कहलाता
ते मे तिगिच्छं कुव्वंति चाउप्पायं जहाहियं ।' है-'नाथः योगक्षेमविधाता।'
पिया मे सव्वसारं पि दिज्जाहि मम कारणा।" (उशावृ प ४७३)
माया य मे महाराय ! पुत्तसोगदुहट्टिया ।" तरुणो सि अज्जो ! पव्वइओ भोगकालम्मि संजया।
भायरो मे महाराय ! सगा जेट्टकणि?गा।" उवदिओ सि सामण्णे एयमझें सुणे मि ता॥
भइणीओ मे महाराय ! सगा जेट्टकणिट्ठगा ।" अणाहो मि महाराय ! नाहो मज्झ न विज्जई।' भारिया मे महाराय ! अणुरत्ता अणुव्वया ।" .."एवं ते इड्ढिमंतस्स कहं नाहो न विज्जई ? ॥
न य दुक्खा विमोएइ एसा मज्झ अणाहया ॥ होमि नाहो भयंताणं ! भोगे भुंजाहि संजया !...
(उ २०१२३-२८, ३०) अप्पणा वि अणाहो सि सेणिया! मगहा हिवा!।
चिकित्सा करने वालों ने गुरु-परंपरा से प्राप्त अप्पणा अणाहो संतो कहं नाहो भविस्ससि ? ॥ आयुर्विद्या के आधार पर मेरी चतुष्पाद चिकित्सा की।
(उ २०१८-१२) मेरे पिता ने मेरे लिए उन प्राणाचार्यों को बहुमूल्य वस्तुएं (एक बार सम्राट् श्रेणिक उद्यान में गये। वहां दीं। महाराज ! पूत्र-शोक से पीडित मेरी माता, मेरे स्थित एक मुनि को देख सम्राट ने पूछा-)
बड़े-छोटे सगे भाई, मेरी बड़ी-छोटी सगी बहनें, मुझमें ___आर्य ! अभी तुम तरुण हो । संयत ! तुम भोगकाल अनुरक्त और पतिव्रता पत्नी भी मुझे दुःख से मुक्त नहीं में प्रवजित हुए हो, श्रामण्य के लिए उपस्थित हुए हो- कर सकी - यह मेरी अनाथता है । इसका क्या प्रयोजन है ? – मैं सुनना चाहता हूं।
सइंच जइ मुच्चेज्जा, वेयणा विउला इओ। ___मुनि ने कहा- महाराज ! मैं अनाथ हूं, मेरा कोई खंतो दंतो निरारंभो, पव्वए अणगारियं ।। नाथ नहीं है।
एवं च चितइत्ताणं, पसुत्तो मि नराहिवा! ।
परियट्टतीए राईए, वेयणा मे खयं गया ।। तुम ऐसे सहज सौभाग्यशाली हो फिर कोई तुम्हारा नाथ कैसे नहीं होगा ? हे भदन्त ! मै तुम्हारा नाथ होता
तओ कल्ले पभायम्मि, आपुच्छित्ताण बंधवे ।
खंतो दंतो निरारंभो, पव्वइओऽणगारियं ॥ है। संयत ! तुम विषयों का भोग करो। हे मगध के अधिपति श्रेणिक! तुम स्वयं अनाथ
ततो हं नाहो जाओ, अप्पणो य परस्स य । हो । स्वयं अनाथ होते हुए भी दूसरों के नाथ कैसे
सव्वेसिं चेव भूयाणं, तसाण थावराण य ।। होओगे?
_(उ २०।३२-३५) कोसंबी नाम नयरी पुराणपुरभेयणी ।''
इस विपुल वेदना से यदि मैं एक बार भी मुक्त हो पढमे वए महाराय ! अउला मे अच्छिवेयण।। जाऊं तो क्षान्त, दान्त और निरारम्भ होकर अनगार अहोत्था विउलो दाहो सव्वंगेस य पत्थिवा ! ॥ वत्ति को स्वीकार कर लूं। ..."इंदासणिसमा घोरा वेयणा परमदारुणा ।।
हे नराधिप ! ऐसा चिन्तन कर मैं सो गया। उवट्रिया मे आयरिया विज्जामंततिगिच्छगा।"
बीतती हुई रात्रि के साथ-साथ मेरी वेदना भी क्षीण हो (उ २०१८,१९,२१,२२) गई। उसके पश्चात प्रभातकाल में मैं स्वस्थ हो गया। मुनि वोले-प्राचीन नगरों में असाधारण सुन्दर मैं अपने बन्धुजनों को पूछ, क्षान्त, दान्त और निरारम्भ कौशाम्बी नाम की नगरी थी। महाराज ! प्रथम वय होकर अनगारवत्ति में आ गया।
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