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नरक
उत्तरक्रिय अवगाहना जघन्यतः अंगुल के संख्यातवें भाग की और उत्कृष्टतः दुगुनी दुगुनी होती है । ४. नरक - आयुष्य बंध के कारण
जीवघायरओ कूरो, महारंभपरिग्गहो । मिच्छदिट्ठी महापावो, बंधए नरयाउयं ॥
१. जीवों का वध करने वाला २. क्रूरता करने वाला
३. महाआरंभ करने वाला
४. महापरिग्रह रखने वाला
५. मिथ्यादृष्टि वाला
६. महापापी ।
- ये सब नरकायुष्क का बन्ध करते हैं । ५. नारक जीवों की आयु-स्थिति
सागरोवममेगं तु, उक्कोसेण वियाहिया । पढमाए जहन्नेणं, दसवास सह स्सिया || तिण्णेव सागरा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया । दोच्चाए जहन्नेणं, एगं तु सागरोवमं ॥ सत्तेव सागरा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया । तइयाए जहन्नेणं, तिष्णेव उ सागरोवमा ॥ दस सागरोवमा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया । चउत्थीए जहन्नेणं, सत्तेव उ सागरोवमा ॥ सत्तरस सागरा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया । पंचमाए जहन्नेणं, दस चेव उ सागरोवमा ॥ बावीस सागरा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया । छट्टीए जहन्नेणं, सत्तरस सागरोवमा || तेत्तीस सागरा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया । सत्तमाए जहन्नेणं, बावीसं सागरोवमा ॥
जघन्य आयु दस हजार वर्ष
एक सागरोपम
३. बालुकाभा तीन सागरोपम
४. पंकाभा
५. धूमाभा ६. तमा ७. तमस्तमा काय स्थिति
नारक
१. रत्नाभा २. शर्कराभा
( उसुवृप ६७ )
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३८०
( उ ३६।१६०-१६६) उत्कृष्ट आयु एक सागरोपम
तीन सागरोपम सात सागरोपम
सात सागरोपम दस सागरोपम दस सागरोपम सतरह सागरोपम सतरह सागरोपम बाईस सागरोपम बाईस सागरोपम तेतीस सागरोपम
जा व उ आउठिई, नेरइयाणं वियाहिया । सा तेसि कायठिई, जहन्नुक्कोसिया भवे ॥
( उ ३६ । १६७)
नरक की वेदना
नैरयिक जीवों की जो आयु-स्थिति है, वही उनकी जघन्यतः या उत्कृष्टतः कार्यस्थिति है ।
गति
तत उद्वृत्तानां पुनस्तत्रैवानुपपत्तेः, ते हि तत उद्वृत्य गर्भजपर्याप्त संख्येयवर्षायुष्ष्वेवोपजायन्ते । ( उशावृ प ६९७ ) प्राणी नरक से निकलकर पुन: नरक में उत्पन्न नहीं होते । वे वहां से निकलकर संख्येय वर्ष आयुष्य वाले गर्भ पर्याप्त प्राणियों में उत्पन्न होते हैं । अंतरकाल
अनंतकालमुक्कोi, अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं । विजढंमि सए काए, नेरइयाणं तु अंतरं ॥ ( उ ३६।१६८) उनका अन्तरकाल – नैरयिक के काय को छोड़कर पुनः उसी काय में उत्पन्न होने तक का काल- - जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनंत काल का है ।
तत्र
अन्तर्मुहूर्तं जघन्यमन्तरं यदाऽन्यतरनरकादुद्धृत्य कश्चिज्जीवो गर्भजपर्याप्तक मत्स्यादिषूत्पद्यते । चातिसंक्लिष्टाध्यवसायोऽन्तर्मुहूर्तमानायुः प्रतिपाल्य मृत्वाऽन्यतमनरक एवोपजायते तदा लभ्यते ।
( उशावृ प ६९७ )
एक जीव के नरक से निकलकर पुनः नरक में उत्पन्न होने का जघन्य अन्तरकाल ( विरहकाल) अन्तमुहूर्त है । कोई जीव किसी नरक से निकलकर गर्भज पर्याप्त मत्स्य आदि के रूप में उत्पन्न होता है। वहां वह अत्यंत संक्लिष्ट परिणाम से अन्तर्मुहूर्त्त आयुष्य को भोग, मरकर पुनः किसी नरक में ही उत्पन्न होता है । ६. नरक की वेदना सारी माणसा वेणाओ अतसो । मए सोढाओ भीमाओ, असई दुक्खभयाणि य ॥ ( उ १९४४५) ( मृगापुत्र प्रव्रजित होना चाहता था । उसकी मां मृगावती ने उसे श्रामण्य की दुश्चरता बताई, तब मृगापुत्र ने उसके समक्ष पूर्व भवों में अनुभूत नरक के दुःखों का वर्णन करते हुए कहा -- )
चेव,
मैंने भयंकर शारीरिक और मानसिक वेदनाओं को अनन्त बार सहा है और अनेक बार दुःख एवं भय का अनुभव किया है।
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