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नैरयिक जीवों की अवगाहना
२. सात नरक और उनके गोत्र
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६. तमः प्रभा -- जहां अंधेरा प्रचुर मात्रा में है, वह तमः प्रभा है ।
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इन सात पृथ्वियों में उत्पन्न होने के कारण नैरयिक
जीव सात प्रकार के हैं ।
नेरइया सत्तविहा, पुढवीसु सत्तसू भवे 1 रयणाभक्कराभा, वालुयाभा य आहिया ॥ पंकाभा धूमाभा, तमा तमतमा तहा । इइ नेरइया एए, सत्तहा परिकित्तिया ||
( उ ३६।१५६,१५७) घावंस सेला अंजण रिट्ठा मघा य माघवती । एते अनादिसिद्धा णामा रयणप्पभादीणं ॥ धम्मदियाणं सत्तण्हं इमा गोत्राख्या - इंदनीलादिबहुविहरयणसंभवओ रयणप्पभादीसु क्वचित् रत्नप्रभा - सनसंभवाद्वा रयणप्रभा रयणकंडप्रतिभागकप्पितोवलिखिता वा रयणप्रभा, नरकवर्ज्जप्रदेशेषु । सक्करोपलस्थित पटल मधोऽधः एवंविधस्वरूपेण प्रभाव्यत इति सर्करप्रभा । एवं वालुकात्ति वालुकारूपेण प्रख्याति वालुकाप्रभा, नरकवज्जेष्वेव पंक इवाभाति पंकप्रभा । कृष्णतमो धूमा- धूमप्रभा । इवाभाति तमः प्रभा । अतीव कृष्ण महत्तम इवाभाति महातमः प्रभा ।
नेरइयाणं सरीरोगाहणा दुविहा पण्णत्ता, तं जहाभवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विया य । तत्थ णं जासा भवधारणिज्जा सा जहणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोण पंच धणुसयाई । तत्थ णं जासा उत्तरवेउब्विया साजणेणं अंगुल संखेज्जइभागं उक्कोसेणं धणुसहस्सं । ( अनु ४०२ ) नैरयिक जीवों के शरीर की अवगाहना के दो प्रकार हैं - भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । इनमें भवधारणीय अवगाहना जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृटत: पांच सौ धनुष्य की होती है । उत्तरवैक्रिय अवगाहना जघन्यतः अंगुल के संख्यातवें भाग और उत्कृष्टतः एक हजार धनुष्य की होती है ।
( अनुचू पृ ३५ ) तत्र रत्नकाण्डस्य भवनपतिभवनानां च विविधरत्नवतां सम्भवात् । ( उशावृप ६९७ ) सात नरक के अनादिसिद्ध नाम हैं—घर्मा, वंशा, शैला, अञ्जना, रिष्टा, मघा और माघवती । रत्नप्रभा आदि इनके गोत्र हैं
रणभापुढवीए ने रइयाणं जासा भवधारणिज्जा साजणे अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं सत्त
१. रत्नप्रभा – जहां इन्द्रनील आदि बहुविध रत्न हैं और जो रत्नों की प्रभा से प्रभासित है, वह रत्नप्रभा है। वहां रत्नकांड और भवनपति देवों के रत्नमय भवन हैं ।
इंतिणि रयणीओ छच्च अंगुलाई । तत्थ णं जासा उत्तरवेउब्विया सा जहणेणं अंगुलस्स संखेज्जइभागं, उक्कोसेणं पण्णरस धणूइं दोणि रयणीओ बारस अंगुलाई |
२. शर्कराप्रभा – जहां शर्करा - उपलों की प्रचुरता है, जिसके पटल शर्करा - उपल पर स्थित हैं, वह शर्कराप्रभा 1
एवं सव्वाणं दुविहा- भवधारणिज्जा जहणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं दुगुणा दुगुणा । उत्तरवेउब्विया जहणेणं अंगुलस्स संखेज्जइभागं, उक्कोसेणं दुगुणा दुगुणा । ( अनु ४०३, ४०४ ) की भवधारणीय अबअसंख्यातवें भाग और और छह अंगुल की
३ वालुकाप्रभा - जो वालुकारूप में प्रख्यात है । ४. पंकप्रभा - जिसकी आभा पंक जैसी है, वह पंकप्रभा है।
रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों गाहना जघन्यतः अंगुल के उत्कृष्टतः सात धनुष्य, तीन रत्नि
५. धूमप्रभा-जो धूम-सी आभा वाली है, वह होती है । उत्तरवेक्रिय अवगाहना जघन्यतः अंगुल के धूमप्रभा है। संख्यातवें भाग और उत्कृष्टतः पन्द्रह धनुष्य, दो रत्नि और बारह अंगुल की होती है । इसी प्रकार सब पृथ्वियों के नैरयिकों की दो प्रकार की अवगाहना
७. महातमः प्रभा - जहां सघन अन्धकार है, वह होती है- भवधारणीय अवगाहना जघन्यतः अंगुल के महातमः प्रभा है । असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्टतः दुगुनी दुगुनी होती है।
नरक
एएसि वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ । ठाणादेओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ||
( उ ३६ । १६९) वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से इन नैरयिक जीवों के हजारों भेद होते हैं । ३. नैरयिक जीवों की अवगाहना
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