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कल्पोपग देव
नियुक्त होकर अनियत गति से विचरण करते हैं, कभीकभी मनुष्यों की भी सेवक की भांति सेवा करते हैं । पिसायभूय जक्खा य, रक्खसा किन्नरा य किपुरिसा । महोरगा य गंधव्वा, अट्ठविहा वाणमंतरा ॥ ( उ ३६।२०७ )
व्यन्तर देव आठ प्रकार के हैं-
१. पिशाच
५. किन्नर
६. किंपुरुष
२. भूत
३. यक्ष
४. राक्षस
जृम्भक देव
७. महोरग ८. गन्धर्व
वेसमणवयणसं चोइआ उ ते तिरिअजंभगा देवा । कोडिगसो हिरणं रयणाणि अ तत्थ उवणिति ॥ जुम्भकाः व्यन्तरा देवाः । तिर्यगिति तिर्यग्लोकजृम्भकाः ।
( आवमा ६८ हावृ १ पृ १२० ) जृम्भक व्यन्तर देवों की एक जाति है । ये देव तिर्यक् लोक में रहने के कारण तिर्यक् जृम्भक कहलाते हैं। ये देव वैश्रमण देव की प्रेरणा से तीर्थंकरों के जन्ममहोत्सव आदि अवसरों पर स्वर्ण, रत्न आदि उपहृत करते हैं ।
५. ज्योतिष्क देव
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ज्योतींषि विमानान्यालया-आश्रया येषां ते ज्योतिरालयाः । ( उशावृ प ७०२ ) जिनके आश्रय - विमान ज्योतिर्मय हैं, वे ज्योतिष्क देव हैं।
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चंदा सूरा य नक्खत्ता, गहा तारागणा तहा । दिसाविचारिणो चेव, पंचहा जोइसालया ॥
( उ ३६।२०८ ) ज्योतिष्क देवों के पांच प्रकार हैं१. चन्द्र २. सूर्य ३. नक्षत्र ४. ग्रह और ५ तारा । ये दिशाविचारी देव मेरु की प्रदक्षिणा करते हुए विचरण करने वाले हैं ।
दिशासु विशेषेण - मेरुप्रादक्षिण्यनित्यचारितालक्षणेन चरन्ति - परिभ्रमन्तीत्येवंशीला दिशाविचारिणः । तद्विमानानि ह्येकादशभिरेक विशैर्योजनशते में रोश्चतसृष्वपि दिवबाधया सततमेव प्रदक्षिणं चरन्तीति तेऽप्येवमुक्ताः । ( उशावृ प ७०२ )
देव
दिशाचरी ज्योतिष्क देवों के विमान मेरु की चारों दिशाओं में सतत प्रदक्षिणा करते हैं, जिसका क्षेत्रपरिमाण ११२१ योजन है ।
६. वैमानिक देव
विशेषेण मानयन्ति - - उपभुञ्जन्ति सुकृतिन एतानीति विमानानि तेषु भवा वैमानिका: ।
( उशावृ प ७०१ ) पुण्यशाली जिनका उपभोग करते हैं, वे विमान हैं । जिनकी उत्पत्ति विमान में हो, वे वैमानिक देव हैं ।
विसालिसेहि सीलेहिं, जक्खा उत्तरउत्तरा । महासुक्का व दिप्पंता, मन्नंता अपुणच्चवं ॥ अप्पिया देवकामाणं, कामरूवविउग्विणी ।
उड्ढं कप्पे चिट्ठति, पुव्वा वाससया बहू ॥ ( उ ३।१४, १५) विविध प्रकार के शीलों की आराधना के कारण जो देव उत्तरोत्तर कल्पों व उसके ऊपर के देवलोकों की आयु का भोग करते हैं, वे महाशुक्ल ( चंद्र-सूर्य ) की तरह दीप्तिमान् होते हैं तथा स्वर्ग से पुनः च्यवन नहीं होता, ऐसा मानते हैं ।
वे देवी भोगों के लिए अपने आपको अर्पित किए हुए रहते हैं । वे इच्छानुसार रूप बनाने में समर्थ होते हैं तथा सैकड़ों पूर्व वर्षों तक -असख्य काल तक ऊर्ध्ववर्ती कल्पों में रहते हैं ।
वेमाणिया उ जे देवा, दुविहा ते वियाहिया । कप्पोवगा य बोद्धव्वा, कप्पाईया तहेव य ।
( उ ३६ २०९) वैमानिक देवों के दो प्रकार हैं- कल्पोपग और कल्पातीत ।
७. कल्पोपग देव
कल्प्यन्ते - इन्द्रसामा निकत्राय स्त्रिशादिदशप्रकारत्वेन एतेष्विति कल्पा – देवलोकास्तानुपगच्छन्ति - उत्पत्तिविषयतया प्राप्नुवन्तीति कल्पोपगाः ।
देवा
(उशावृ प ७०२)
जहां इन्द्र आदि कल्पों की व्यवस्था है, वे कल्पोपपन्न देवलोक हैं । वहां उत्पन्न देव कल्पोपग कहलाते हैं । दसकल्प ये हैं
१. इन्द्र - सामानिक आदि देवों के अधिपति । २. सामानिक - आयु आदि में इन्द्र के समान ।
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