________________
देव
* देव के भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान और उसकी क्षेत्र
( द्र. अवधिज्ञान ) (व्र. कर्म)
( द्र. सामायिक )
मर्यादा तथा संस्थान
* देवगति शुभ नाम कर्म
* देवगति और सामायिक
* देवों में लेश्या की स्थिति
* देव और आशीविष लब्धि
* देवों में श्रुत- विशुद्धि का तारतम्य
* धर्मध्यान और देवगति
*
देवेन्द्र भव्य होते हैं।
* देवों में शरीर
*
अवगाहना और विमानों का मापन
देव चार प्रकार के हैं१. भवनपति
२. व्यन्तर एएसि वण्णओ चेव, संठाणादेसओ वावि,
३४८
( ब्र. लेश्या) ( द्र. लब्धि )
१. देव का निर्वाचन
दिव्यन्ति निरुपमक्रीडामनुभवन्तीति देवाः । ( नन्दीमवृ प ७७ )
जो निरुपम क्रीडा का अनुभव करते हैं, वे देव हैं । २. देव के प्रकार
देवा चव्वा वुत्ता, ते मे कित्तयओ सुण । भोमिज्जवाणमंतर, जोइसवेमाणिया
३. ज्योतिष्क ४. वैमानिक
(द्र. भुतज्ञान) (द्र ध्यान )
Jain Education International
( द्र. चक्रवर्ती)
(द्र. शरीर ) (द्र अंगुल )
तहा ।
( उ ३६ । २०४)
गंधओ रसफासओ । विहाणाई सहस्ससो ॥ ( उ ३६ । २४७)
वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं ।
३. भवनपति देव
भूमौ पृथिव्यां भवा: भौमेयकाः भवनवासिनो, रत्नप्रभा पृथिव्यन्तर्भूतत्वात्तद्भवनानाम् ।
( उशावृ प ७०१ )
जिन देवों के आवास भूमि पर हैं, वे भवनवासी कहलाते हैं । उनके भवन रत्नप्रभा पृथ्वी के भीतर हैं ।
कुमारवदेव कान्तदर्शनाः सुकुमाराः मृदुमधुरललितगतयः शृङ्गाराभिजातरूपविक्रियाः कुमारवच्चोद्धतरूपवेषभाषाभरणप्रहरणावरणयानवाहनाः कुमारवच्चोल्वणरागाः
व्यंतर देव
क्रीडनपराश्चेत्यतः कुमारा इत्युच्यन्ते । ( उशावृ प ७०२ ) जो कुमार की तरह कान्त, सुकुमार और मन्दललित गति वाले हैं, जो सुन्दर रूप की विक्रिया करते हैं, जो कुमार की तरह उद्धत रूप वेष, भाषा, आभूषण, आयुध, आवरण, यान वाहन वाले होते हैं, जो लावण्य सम्पन्न और क्रीड़ा प्रिय होते हैं, वे कुमार देव ( भवनवासी देव ) कहलाते हैं ।
असुरा नागसुवण्णा, विज्जू अग्गी य आहिया । वो हिदिसा वाया, थणिया भवणवासिणो ॥ ( उ ३६।२०६ )
भवनवासी देवों के दस प्रकार हैं
१. असुरकुमार
६. द्वीपकुमार ७. उदधिकुमार
२. नागकुमार
३. सुपर्णकुमार
८. दिक्कुमार
४. विद्युत्कुमार ९. वायुकुमार
५. अग्निकुमार १०. स्तनितकुमार
४. व्यंतर देव
वनेषु विचित्रोपवनादिषूपलक्षणत्वादन्येषु च विविधास्पदेषु क्रीडैकरसतया चरितुं शीलमेषामिति वनचारिणः -- व्यन्तराः । ( उशावृ प ७०१ ) कुतूहलप्रिय और क्रीडा रसिक होने के कारण जो वन - उपवन आदि विविध स्थानों में विचरण करते हैं, वे व्यंतर देव हैं ।
• वाणमंतरत्ति आर्षत्वाद् विविधान्यन्तराणि - उत्कर्षापकर्षात्मकविशेषरूपाणि निवासभूतानि वा गिरिकन्दरविवरादीनि येषां तेऽमी व्यन्तराः, उक्तं हि ते ह्यधस्तिर्यगूर्ध्वं च त्रीनपि लोकान् स्पृशन्तः स्वातन्त्र्यात् पराभियोगाच्च प्रायेण प्रतिपतन्त्यनियतगतिप्रचारान्मनुव्यानपि क्वचिद् भृत्यवदुपचरन्ति तथा विविधेषु च शैलकन्दरान्तरवनविवरादिषु प्रतिवसन्त्यतो व्यन्तरा इत्युच्यन्ते । ( उशावृ प ७०१ )
रत्नप्रभा पृथ्वी के साधारण असाधारण अंतरों में जिनके आवास स्थल हैं तथा जो गिरिकन्दराओं के विवरों और वन-उपवनों आदि में रहते हैं, वे व्यन्तर देव
I
वे देव ऊर्ध्व, अधः तथा तिर्यक्- तीनों लोकों का स्पर्श करते हैं तथा स्वतंत्र रूप से अथवा दूसरों के द्वारा
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org