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जीव के चौदह प्रकार
५. जीवों को अनंतता
उपयोग की अपेक्षा
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जेणोवओलिंगो जीवो भिन्नो य सो पइसरीरं । उवओगो उक्क रिसावगरिसओ तेण तेऽणंता ॥ ( विभा १५८३ ) जीव का लक्षण है उपयोग । वह प्रत्येक व्यक्ति का भिन्न-भिन्न होता है । उत्कर्ष - अपकर्ष के आधार पर उपयोग के अनन्त भेद हैं । अतः जीव अनन्त हैं । एकेन्द्रिय जीवों को अपेक्षा
सिज्यंति सोम्म ! बहुसो जीवा नवसत्तसंभवो नवि य । परिमियसो लोगो न संति चेगिदिया जेसि ॥ तेसि भवविच्छित्ती पावइ नेट्ठा य सा जओ तेण । सिद्धमता जीवा भूयाहारा य तेऽवस्सं ॥
( विभा १७६०, १७६१ ) बहुत से जीव निरन्तर मुक्त हो रहे हैं । नया जीव उत्पन्न नहीं होता । लोक परिमित है । बादर जीव तो थोड़े हैं । यदि एकेन्द्रिय का अस्तित्व नहीं माना बहुत जाए तो संसार की व्यवच्छित्ति का प्रसंग आ जाएगा । संसार की व्यवच्छित्ति किसी को भी इष्ट नहीं है । एकेन्द्रिय (वनस्पति) जीवों की अपेक्षा ही जीवों की अनन्तता सिद्ध होती है ।
६. जीव के प्रकार
संसारत्थाय सिद्धाय, दुविहा जीवा वियाहिया । ..... ( उ ३६१४८) जीव के दो प्रकार हैं- संसारी और सिद्ध । जीवा दुविहा-रूवी अरूवी य । रूवी संसारी, अरूवी सिद्धा । जीव रूवी सपदेसा य । कालादेसेणं नियमा सपदेसा । लद्धिआदेसेणं सपदेसा वा अपदेसा वा । अरूवी कालादेसेणवि लद्धिआदेसेणवि सप्पदेसा वा अपदेसा वा । ( आवचू २ पृ ४) जीव के दो प्रकार हैं-रूपी और अरूपी । संसारी जीव रूपी हैं । सिद्ध जीव अरूपी हैं। जो जीव रूपी और प्रदेशी है, वह काल की अपेक्षा से नियमतः सप्रदेश है । लब्धि की अपेक्षा से सप्रदेश अथवा अप्रदेश है । अरूपी जीव कालादेश से भी और लब्ध्यादेश से भी सप्रदेश अथवा अप्रदेश है ।
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संसारी जीव के प्रकार
जीव
संसारत्था उ जे जीवा, दुविहा ते वियाहिया ।
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तसा य थावरा चेव' ( उ ३६/६८) संसारी जीव दो प्रकार के हैं - त्रस और स्थावर । दुविहाय होंति जीवा सुहुमा तह बायरा य लोगम्मि | सुहुमा य सव्वलोए दो चेव य बायर विहाणे ( दनि १२४) जीव के दो प्रकार हैं- सूक्ष्म और वादर । सूक्ष्म जीव सारे लोक में व्याप्त हैं । बादर जीव के दो प्रकार हैं - पर्याप्तक और अपर्याप्तक ।
७. जीव के चौदह प्रकार
चोदसहि भूतगामेहिं"
एगिंदिया सुहुमा इतरा
बादरा, हुमा पज्जत्ता अपज्जत्ता य । एवं बादरावि दुविहा । बेंदियावि दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता य । तें दियावि दुविहा, चउरिदिया दुविहा पंचिदिया दुविहासण्णिणो असणिणो य । तत्थ असणिपंचिदियावि दुविधा - पज्जत्ता अपज्जत्ता । सण्णिपंचिदियावि दुविधा -- (आवचू २ पृ १३२)
पज्जत्ता अपज्जत्ता य ।
जीव के चौदह प्रकार
सूक्ष्म एकेन्द्रिय के दो भेद - पर्याप्त, अपर्याप्त । बादर एकेन्द्रिय के दो भेद - पर्याप्त, अपर्याप्त । द्वीन्द्रिय के दो भेद - पर्याप्त, अपर्याप्त । त्रीन्द्रिय के दो भेद पर्याप्त, अपर्याप्त । चतुरिन्द्रिय के दो भेद--पर्याप्त, अपर्याप्त । असंज्ञी पंचेन्द्रिय के दो भेद - पर्याप्त, अपर्याप्त । संज्ञी पंचेन्द्रिय के दो भेद - पर्याप्त, अपर्याप्त । .... ओह भवग्गहणम्मि य तब्भवजीवे य भावम्मि || संते आउयकम्मे धरती तस्सेव जीवती उदए । तस्सेव निज्जराए मओ त्ति सिद्धो नयमएणं ॥ जेण य धरति भगवतो जीवो जेण य भवाउ संकमई । जाणाहि तं भवाउं चउव्विहं तब्भवे दुविहं || (दनि १२१-१२३)
जीव के तीन प्रकार है१. ओघ जीव जीव आयु द्रव्य के कारण जीवन धारण करता है, वह ओघ जीव है । उसके संपूर्ण क्षय होने से वह सिद्ध अवस्था को प्राप्त करता है । २. भवजीव - गतिनाम कर्म के उदय से जीव नरक आदि चारों गतियों को प्राप्त करता है, वह भवजीव है ।
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