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सूक्ष्मसंपराय चारित्र
ग्रीष्म
जघन्य उपवास
(चतुर्थ भक्त )
मध्यम बेला
उत्कृष्ट तेला
आहार - विधि
शिशिर
बेला
( षष्ठभक्त)
तेला
चोला
सेसा उ निययभत्ता पायं होइ नवहं वि नियमा न
२६९
भत्तं च ताणमायामं । कप्पए सेसयं सव्वं ॥
( विभा १२७४ ) अनुपरिहारिक कल्पस्थिताः पञ्चापि प्रायो नियतभक्ता नित्यभोजिनो भवन्ति । प्रायोग्रहणाद् निजेच्छया कदाचिदुपवासमपि कुर्वन्ति । भक्तं च तेषां सर्वदैवाऽनुपरिहारिक कल्पस्थितानां पारणके परिहारिकाणां च सर्वेषामाचाम्लमेव भवति । शेषं तु विकृतिलेपकृदादिकं स्तु सर्वं नवानामपि नियमाद् न कल्पते ।
( विभामवृ पृ ४७९) अनुपारिहारिक और कल्पस्थित प्रायः नित्यभोजी होते हैं । वे स्वेच्छा से कभी-कभी उपवास कर लेते हैं । वे प्रतिदिन तथा पारिहारिक पारणे के दिन आयम्बिल करते हैं । उनमें से कोई भी साधु विकृति या लेपकृत वस्तु का प्रयोग नहीं करते हैं ।
कालमान
परिहारिया - ऽणुपरिहारियाण कप्पट्ठियस्स वि य भत्तं । छ छम्मासा उ तवो अट्ठारसमासिओ कप्पो ॥ ( विभा १२७५ ) परिहारविशुद्धि साधना का कालमान अठारह महीने है । पारिहारिक, अनुपारिहारिक और कल्पस्थित - तीनों में से प्रत्येक के छह-छह महीने का तप होता है । तप समाप्ति के बाद का क्रम
वर्षा
तेला
(अष्टमभक्त )
चोला
पंचोला
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कप्पसमत्तीए तयं जिणकप्पं वा उवेंति गच्छं वा । ठिकप्पे च्चिय नियमा दो पुरिसजुगाई ते होंति । ( विभा १२७६ )
परिहार तप की समाप्ति पर कुछेक मुनि पुनः परिहार तप को स्वीकार करते हैं । कुछेक जिनकल्प को स्वीकार करते हैं । कुछेक संघ में प्रवेश कर लेते हैं । इसलिए पारिहारिक तप स्थितकल्प की अवस्था में होता है । वह प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के समय में ही होता
चारित्र
६. सूक्ष्मसंपराय चारित्र
कोवाइ संपराओ तेण जओ संपरीइ संसारं । तं सुहुमसंपरा, सुहुमो जत्थावसेसो सो | ( विभा १२७७) क्रोध आदि कषाय संपराय हैं। जीव उनसे संसार में भ्रमण करता है। जहां सूक्ष्म कषाय (लोभ) अवशेष रहता है, वह सूक्ष्मसम्पराय चारित्र है ।
सुमो अस्य रागः सुहुमसंपरागः ।
( आवचू १ पृ १०३ ) जिसके सूक्ष्म राग शेष रहता है, वह सूक्ष्मसंपराग (य)
है ।
लोभाणुं वेअंतो जो खलु उवसामओ व खवगो वा । सो सुहुमसंपराओ अहक्खाया ऊणओ किंची ॥
( आवनि ११७ )
उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी में आरूढ साधक सूक्ष्म लोभाणुओं का वेदन करता है, उस समय की चारित्रिक स्थिति को सूक्ष्मसंपराय चारित्र कहा जाता है । यह यथाख्यात चारित्र से कुछ न्यून होता है ।
दंसण महाईओ भण्णइ अनियट्टिबायरो परओ । ..... जाव उ सेसो संजलणलोभ संखेज्जभागो त्ति ॥ तदसंखेज्जइभागं समए समए समेइ एक्केक्कं । अंतमुत्तमेत्तं तस्सा संखेज्जभागं पि ॥
( विभा १३००, १३०१ ) दर्शनमोह के अतीत हो जाने पर जब तक संज्वलन लोभ का संख्याततम भाग शेष रहता है, तब तक अनिवृत्तिबादर गुणस्थान रहता है । श्रेणिआरूढ मुनि संज्वलन के संख्याततम भाग के असंख्य भाग करता है। उन असंख्य भागों को एक- एक समय में उपशान्त या क्षीण करता है, तब अन्तर्मुहूर्त्त वाला सूक्ष्मसंपराय चारित्र प्राप्त होता है ।
प्रकार
सुमपरायचरितगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - संकि लिस्समाणए य विसुज्झमाणए य ।
( अनु ५५३ ) विलग्गतं विसुज्झमाणं तओ चयंतस्स । तह संकि लिस्समाणं परिणामवसेण विन्नेयं ॥ ( विभा १२७८ ) सूक्ष्मसंपराय चारित्र के दो भेद हैं-संक्लिश्यमान और विशुद्धयमान । इन भेदों का कारण है विशुद्ध और संक्लिष्ट परिणाम । यह चारित्र श्रेणिआरोहण के समय
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