________________
चारित्र
२६८
परिहारविशुद्धि चारित्र
. समिति साङ्गत्येनकीभावेन वा आयो - गमनं-प्रवर्त्तनं छेदोपस्थापनीय चारित्र के दो प्रकार हैंसमायः स प्रयोजनमस्य सामायिकम् । तच्च सकलसाव- १. निरतिचार-यह दो अवस्थाओं में होता हैद्यपरिहार एव । तत्रैव सति साङ्गत्येन स्वपरविभागा- ० शिष्य को विस्तार से महाव्रतों की उपस्थापना भावेन च सर्वत्र प्रवृत्तिसम्भवात् । यद्वा समो-रागद्वेष- दी जाने पर। विरहितः स चेह प्रस्तावाच्चित्तपरिणामस्तस्मिन्नायो- • एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में जाने पर। गमनं समायः स एव सामायिकम् । (उशाव प ५६७) २. सातिचार-मूल गुण का घात हो जाने पर पुनः • अपने और पराये का भेद किये बिना प्रवत्ति करना महाव्रतों का आरोपण करना सातिचार छेदोपस्थासामायिक है। सर्व सावध योग का परिहार करने पनीय चारित्र है। पर ही सामायिक हो सकती है।
ये दोनों ही अवस्थाएं स्थितकल्प साधु में होती है। ० राग-द्वेष से रहित चित्त का परिणाम सम है, उसमें
५. परिहारविशुद्धि चारित्र रहना सामायिक है।
परिहारेण विसुद्धं सुद्धो वा तओ जहिं विसेसेण । प्रकार
तं परिहारविसुद्धं परिहारविद्धियं नाम । ""सामाइयं दुहा तं च । इत्तरमावकहं ति य पढमं पढमंतिमजिणाणं ॥
(विभा १२७०)
परिहार नामक तपविशेष के द्वारा शुद्धि प्राप्त तित्थेसुमणारोवियवयस्स सेहस्स थोवकालियं ।
करना परिहारविशुद्धि चारित्र है। सेसाणमावकहियं तित्थेसु, विदेहयाणं च ।।
(विभा १२६३,१२६४) प्रकार सामायिक चारित्र के दो भेद हैं - इत्वरिक-स्वल्प- परिहारविशुद्धियचरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते, कालीन और यावत्कथिक-आजीवन ।
तं जहा—निव्विसमाणए य निविट्ठकाइए य । (अनु५५३) - इत्वरिक सामायिक चारित्र भरत और ऐरावत क्षेत्र तं द्रविगप्पं निव्विसमाण-निविद्रकाइयवसेणं। में प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के समय के उन शैक्ष परिहारियाणपरिहारियस्स कप्पट्रियस्स वि य ।। साधओं के तब तक होता है, जब तक महाव्रतों का नवको गणं इदं प्रतिपद्यते, तद्यथा-चत्वारः परिविस्तार से आरोपण नहीं किया जाता। महाविदेह क्षेत्र हारिकाः, चत्वारश्चानुपरिहारिकाः, एकस्तु कल्पस्थितः। में सब साधओं तथा शेष बावीस तीर्थंकरों के शासन में तत्र परिहारिकाणां तदासेवकत्वादिदं निर्विशमानकमुच्यते, यावत्कथिक सामायिक चारित्र होता है।
अनुपरिहारिकाणां कल्पस्थितस्य च विहितवक्ष्यमाणतपसां ४. छेदोपस्थापनीय चारित्र
निविष्टकायिकमभिधीयते । (विभा १२७१ मव पृ ४७८) परियायस्स य छेओ जत्थोवट्ठावणं वएस च ।
परिहार विशुद्धि के दो प्रकार हैं --निविशमान और छेओवदावणमिह ....."
निविष्टकायिक ।
(विभा १२६८) नौ साधु इस तप को प्रारम्भ करते हैं। उनमें एक जिसमें सामायिक चारित्र की पर्याय का छेद और कल्पस्थित, चार पारिहारिक और चार अनूपारिहारिक महाव्रतों का पुनः उपस्थापन किया जाता है, वह होते हैं। वर्तमान में जो पारिहारिक मूनि परिहार तप छेदोपस्थापनीय चारित्र है।
करते हैं, वे निविशमान कहलाते हैं। जो परिहार तप प्रकार
कर चकते हैं और वर्तमान में सेवा में नियुक्त होते हैं, वे ' छेओवट्ठावणियचरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पण्णते तं निर्विष्टकायिक कहलाते हैं। जहा-साइयारे य निरइयारे य । (अनु ५५३) परिहार तप का क्रम सेहस्स निरइयारं तित्थंतरसंकमे च तं होज्जा।
गिम्ह-सिसिर-वासासं चउत्थयाईणि बारसंताई। .. मूलगुणघाइणो साइयारमुभयं च ठियकप्पे॥ अड्ढापक्कंतीए जहण्णमज्झिमुक्कोसयतवाणं ॥ - (विभा १२६९)
(विभा १२७३)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org