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गणधर
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आगम-रचना का प्रयोजन
धर्म धर्मी में रहता है । इसलिए उत्पत्ति धर्म का जो वाली बीजबुद्धि के धारक होते हैं। उत्पाद, व्यय, आधार है, वह नित्य है। नित्य होता है, उसका पुन- ध्रौव्य-इस त्रिपदी का अवधारण कर वे सम्पूर्ण जन्म अवश्य होता है।
द्वादशांगात्मक प्रवचन की रचना करते हैं।
गौतमः चतुर्दशपूर्वधरः सर्वाक्षरसंन्निपाती सम्भिन्नगणधर प्रभास
श्रोता: सकलप्रज्ञापनीयभावपरिज्ञानकुशल: प्रवचनस्य कि मण्णे निव्वाणं अत्थि णत्थित्ति संसओ तुझं ।
। प्रणेता सर्वज्ञदेशीय एव। (नन्दीमवृ प १०१) (आवनि ६४०)
गणधर गौतम चतुर्दशपूर्वी, सर्वाक्षरसन्निपाती, पडिवज्ज मण्डिओ इव वियोगमिह कम्मजीवजोगस्स।
संभिन्नश्रोतोलब्धिसम्पन्न, समस्त प्रज्ञापनीय भावों के तमणाइणो वि कंचण-धाऊण व णाण-किरियाहिं ॥
परिज्ञान में कुशल, प्रवचन-द्वादशांगी के प्रणेता और
(विभा १९७७) सर्वज्ञ-तुल्य थे। प्रभास ! निर्वाण है अथवा नहीं, तुम्हारे मन में यह
४. गणधरों द्वारा आगम (द्वादशांग) रचना संदेह है ?
तवनियमनाणरुक्खं, आरूढो केवली अमियनाणी । मंडितपुत्र की तरह तुम इस बात को स्वीकार करो
तो मुयइ नाणबुद्धि, भवियजणविबोहणट्ठाए । कि जीव और कर्म का संयोग अनादि है, फिर भी
तं बुद्धिमएण पडेण, गणहरा गिहिउं निरवसेसं । सम्यज्ञान और सम्यक्चारित्र के द्वारा उसका अन्त हो
तित्थयरभासियाई, गंथंति तओ पवयणट्ठा ॥ सकता है, जैसे सोने और धातू के चिरकालिक संयोग का
(आवनि ८९,९०) वियोग होता है।
अनंतज्ञानसम्पन्न अर्हत् तप, संयम और ज्ञानरूपी ३. गणधरों के अतिशेष
वृक्ष पर आरूढ़ होकर भव्यजनों को जागृत करने के लिए सव्वे य माहणा जच्चा, सव्वे अज्झावया विऊ ।।
ज्ञान की वृष्टि करते हैं। गणधर उसी वृष्टि को बुद्धिसव्वे दुवालसंगी य, सवे चोद्दसपुग्विणो ।।
रूपी पट में समग्रता से ग्रहण करते हैं। तीर्थंकर द्वारा परिणिव्व या गणहरा जीवते णायए णव जणा उ । प्ररूपित वाणी को वे शासनहित के लिए गुम्फित करते इंदभूई सहम्मो य रायगिहे निव्वए वीरे॥ हैं । मासं पाओवगया सव्वेऽवि य सव्वलद्धिसंपण्णा । ५. आगम-रचना का प्रयोजन वज्जरिसहसंघयणा समचउरसा य संठाणा ॥ चित्तुं च सुहं सुहगणणधारणा दाउं पुच्छिउं चेव ।
(आवनि ६५७-६५९) एएहि कारणेहिं जीयंति कयं गणहरेहिं । सभी गणधर जाति से ब्राह्मण थे। गृहस्थ पर्याय में
(आवनि ९१) वे सभी विद्वान् अध्यापक (उपाध्याय) थे। दीक्षित होने प्रयोजन के छह बिन्दुपर सबने द्वादशांग और चौदह पूर्व ग्रहण किये।
१. पद, वाक्य, प्रकरण, अध्याय, प्राभृत आदि के रूप में सब गणधर आमीषधि आदि सब लब्धियों से व्यवस्थित होने से श्रुत का सुखपूर्वक ग्रहण होता है। सम्पन्न थे। उनके वज्रऋषभनाराच संहनन और समचतु- २. सुगमता से गणना की जा सकती है। रस्र संस्थान था। सबने प्रायोपगमन अनशन कर निर्वाण ३. दीर्घकाल तक उसकी स्मृति बनी रह सकती है। प्राप्त किया।
४. ज्ञान देने की सुविधा होसी है। गणधर इन्द्रभूति और सुधर्मा वीरनिर्वाण के पश्चात् ५. प्रश्न पूछने की सुविधा होती है। निर्वाण को प्राप्त हए। शेष नौ गणधर भगवान् महावीर ६. द्वादशांगी की अविच्छिन्नता रह सकती है। की उपस्थिति में ही मुक्त हो गये ।
सव्वेहिं गणहरेहिं जीयं ति सुयं जओ न वोच्छिन्नं । बीजबुद्धिः सर्वोत्तमा प्रकर्षप्राप्ता भगवतां गणभृतां, गणहरमज्जाया वा जीयं सव्वाण चिन्नं वा ।। ते हि उत्पादादिपदत्रयमवधार्य सकलमपि द्वादशाङ्गात्मकं
(विभा १११७) प्रवचनमभिसूत्रयन्ति ।
(नन्दीमवृ प १०६) गणधरों द्वारा आगम-रचना की जाती है, इसके तीन सभी गणधर सर्वोत्तम और चरम शिखर तक पहुंचने प्रयोजन हैं, जो जीत शब्द में निहित हैं -
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