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गणधर व्यक्त
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गणधर
जरा और मृत्यु से मुक्त भगवान महावीर की वाणी गणधर वायुभूति सुन इन्द्रभूति का संशय छिन्न हो गया। उसने अपने
तज्जीवतस्सरीरं ति, संसओ णवि य पुच्छसे किंचि। ५०० शिष्यों के साथ भगवान महावीर के पास प्रव्रज्या
__ (आवनि ६०८) स्वीकार कर ली।
वायुभूति ! तुम्हारे मन में यह संशय है कि जो गणधर अग्निभूति
जीव है, वही शरीर है । तुम चाहने पर भी इस संबंध कि मण्णि अस्थि कम्म, उदाह णस्थित्ति संसओ तुज्झ।। य कम्म, उदाहु त्थिात्त ससआ तुझा में कुछ पूछ नहीं रहे हो। (आवनि ६०४)
वसुहाइभूयसमुदयसंभूया चेयण त्ति ते संका । कम्मे तुह संदेहो, मन्नसि तं नाणगोयराईयं ।
पत्तेयमदिवा वि हु, मज्जंगमउ व्व समुदाये । तुह तमणुमाणसाहणमणुभूइमयं फलं जस्स ॥
जह मज्जंगेसु मओ, वीसुमदिट्ठो वि समुदए होउं । (विभा १६११)
कालंतरे विणस्सइ, तह भूयगणम्मि चेयणं ।। अग्निभूति ! तुम्हारे मन में यह संदेह है कि कर्म है
(विभा १६५०,१६५१) अथवा नहीं। तुम यह मानते हो कि कर्म प्रत्यक्ष आदि किसी ज्ञान का विषय नहीं होता। पर उसका फल तुम्हारा यह संशय है कि पृथ्वी, पानी आदि भूतअनुभूति का विषय है. इसलिए तम अनमान से उसे समुदाय से चेतना उत्पन्न होती है। जैसे मद्य के प्रत्येक जान सकते हो।
अवयव--फूल, गुड, पानी आदि में मदशक्ति दिखाई नहीं अस्थि सुह-दुक्खहेउं, कज्जाओ बीयमंकुरस्सेव । देती, परन्तु उनके समुदाय में मदशक्ति प्रकट हो जाती सो दिदो चेव मई, वभिचाराओ न तं जुत्तं ।। है। इसी प्रकार पृथ्वी, पानी आदि अलग-अलग भूतों में
(विभा १६१२) चैतन्यशक्ति दिखाई नहीं देती, उनके समुदाय में वह अग्निभूति-सुख-दुःख कार्य हैं । उनके हेतु-कारण दृष्ट हो जाती है। दृष्ट हैं। जैसे अंकुर का हेतु बीज । फिर अदृष्ट कर्म को मद्य के प्रत्येक अवयव में मदशक्ति नहीं होती, मानने की क्या आवश्यकता है ? महावीर-दृष्टकारण समुदाय में वह हो जाती है और कालान्तर में विनष्ट हो यदि अनेकांतिक हो तो अदृष्टकारण मानना अपेक्षित है। जाती है। उसी प्रकार प्रत्येक भूत में अदृष्ट चैतन्य
जो तुल्लसाहणाणं, फले विसेसो ण सो विणा हेउं । भूतसमुदाय में दृष्ट होता है और कालान्तर में वह कज्जत्तणओ गोयम ! घडो व्व हेऊ य सो कम्मं ॥ विनष्ट हो जाता है।
(विभा १६१३)
पत्तेयमभावाओ, ण रेणुतेल्लं व समुदये चेया । जिसके साधन समान हों और फल में वैषम्य हो तो
__मज्जगेसुं तु मओ, वीसुं पि ण सव्वसो णत्थि ।। वह अहेतुक नहीं है । घट कार्य है। कार्य का कारण
(विभा १६५२) अवश्य होता है । तुल्य साधन होने पर भेद नहीं होता। तुल्य साधन होने पर भी कार्य में भेद होता है, उसका
मद्य के प्रत्येक अवयव में मदशक्ति नहीं है तो वह हेतु है-कर्म ।
उनके समुदित होने पर भी नहीं हो सकती । जैसे बालू के बालसरीरं देहतरपुव्वं इंदियाइमत्ताओ। एक-एक कण में तैल नहीं होता, वैसे ही उनका समुदाय जह बालदेहपुव्वो, जुवदेहो पुव्वमिह कम्मं ॥ होने पर भी तैल नहीं होता।
(विभा १६१४) गणधर व्यक्त बालक का शरीर अन्य शरीरपूर्वक होता है । क्योंकि (वह इन्द्रिय आदि से युक्त है । जैसे युवकशरीर बालशरीर
कि मण्णि पंचभूया, अत्थि णत्थि त्ति संसओ तुझ । पूर्वक होता है, वैसे ही बालकशरीर जिस शरीरपूर्वक
(आवनि ६१२) होता है, वही है कर्म-कार्मण शरीर ।
व्यक्त ! तुम्हारे मन में यह संशय है कि पांच भूतों का अस्तित्व है या नहीं।
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