________________
गणधर
२. गणधर : जिज्ञासा समाधान
जीवे कम्मे तज्जीव भूय तारिसय बंधमोक्खे य । देवी णेरइए या पुण्णे परलोय णेव्वाणे ॥
( आवनि ५९६ )
जिज्ञासाएं
१. इन्द्रभूति - जीव है या नहीं ? २. अग्निभूति - कर्म है या नहीं ? ३. वायुभूति - शरीर ही जीव ४. व्यक्त-भूत है या नहीं ?
५. सुधर्मा - इस भव में जीव जैसा है, परभव में भी वैसा ही होता है या नहीं ?
६. मंडित-बन्ध - मोक्ष है अथवा नहीं ? ७. मौर्यपुत्र - देव है अथवा नहीं ?
T
८. अकंपित - नारक है अथवा नहीं ? ९. अचल भ्राता - पुण्य-पाप है अथवा नहीं ? १०. मेतार्य - परलोक है अथवा नहीं ? ११. प्रभास - निर्वाण है अथवा नहीं ? गणधर इन्द्रभूति
जीवे तुह संदेहो, पच्चक्खं जं न घिप्पइ घडो व्व । अच्चतापच्चक्खं च णत्थि लोए खपुप्फं व ॥ ( विभा १५४९ )
श्रमण महावीर ने कहा - इन्द्रभूति ! तुम्हें जीव के अस्तित्व में संदेह है । तुम मानते हो कि घट की भांति उसका प्रत्यक्ष ग्रहण नहीं होता । जो अत्यन्त परोक्ष है, उसका आकाशकुसुम की भांति अस्तित्व नहीं होता । सोऽणुमाणगम्मो जम्हा पच्चक्खपुव्वयं तं पि । पुव्वोवलद्धसंबंधसरओ सरणओ लिंगलिंगीणं ॥ ( विभा १५५० ) । क्योंकि
जाने हुए
जीव का अस्तित्व अनुमानगम्य भी नहीं है अनुमान प्रत्यक्षपूर्वक ही होता है । पहले साध्य और साधन की स्मृति व्याप्ति के ज्ञान से ण य जीवलिंगसंबंधदरिसणमभू जओ पुणो तल्लिंगदरिसणाओ, जीवे संपच्चओ
होती है
।
Jain Education International
या अन्य ?
२३४
गणधर : जिज्ञासा समाधान
जं चागमा विरुद्धा, परोप्परमओ वि संसओ जुत्तो । सव्वप्पमाणविसयाईओ जीवो त्ति तो बुद्धी ॥
( विभा १५५२, १५५३ )
सरओ ।
होज्जा ॥ १५५१ )
( विभा
जीव को प्रमाणित करने वाले हेतु की व्याप्ति पूर्वदृष्ट नहीं है, जिससे कि उसकी स्मृति हो सके, उसके हेतु को देखकर जीव की संप्रत्यय - प्रतीति हो सके । नागमगम्मो वि तओ, भिज्जइ जं नागमोऽणुमाणाओ । न य कासइ पच्चक्खो, जीवो जस्सागमो वयणं ॥
आगम प्रमाण से भी जीव की सिद्धि नहीं हो सकती । आगम प्रमाण अनुमान प्रमाण से भिन्न नहीं है । ऐसा कोई आप्तपुरुष नहीं है, जिसने जीव का साक्षात्कार किया हो जिसके आधार पर उसके वचन को आगम माना जा सके ।
आगम परस्पर विरुद्ध मत का प्रतिपादन करते हैं, इसलिए तुम्हारा जीव के अस्तित्व में संशय होना संभव है । तुम्हारा मत है कि जीव सब प्रमाणों - प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम से अतीत है ।
गोयम ! पच्चक्खो च्चिय, जीवो जं संसयाइ विष्णाणं । पच्चक्खं च न सज्भं, जह सुहदुक्खा सदेहम || ( विभा १५५४ ) गौतम ! तुम्हें संशयात्मक विज्ञान होता है, इसलिए जीव प्रत्यक्ष है । जो प्रत्यक्ष है, वह साध्य नहीं होता । जैसे शरीर में होने वाला सुख - दुःख का संवेदन | जं च न लिंगेहिं समं, मन्नसि लिंगी जओ पुरा गहिओ । संगं ससेण व समं, न तोऽणुमेओ सो ॥ (विभा १५६५ )
लिंगओ
तुम मानते हो कि जीव को सिद्ध करने वाले हेतु का संबंध ( व्याप्ति ) प्रत्यक्ष प्रमाण से पूर्व गृहीत नहीं है । जैसे खरगोश के साथ सींग का संबंध । इसलिए जीव हेतु द्वारा अनुमेय नहीं है ।
सोऽगंतो जम्हा, लिंगेहि समं न गहलिंगदरिसणाओ, गहोऽणुमेओ
दिट्ठपुव्वो वि । सरीरम्मि || ( विभा १५६६ )
पूर्वदृष्ट हेतु के साथ साध्य को देखा हो तभी उस हेतु से साध्य की सिद्धि होती है, यह एकांत नियम नहीं है । हमने ग्रह ( देवयोनि विशेष ) को हास्य, रुदन आदि हेतुओं के साथ नहीं देखा फिर भी व्यक्ति के शरीर में इन लक्षणों को देख उसका अनुमान किया जाता है । इसी प्रकार साधन के अभाव में भी जीव का अनुमान हो सकता है।
छिन्नम्म संसयम्मि, जिणेण जरमरणविप्पमुक्केणं । सो समणो पव्वइओ, पंचहि सह खंडिसएहि ॥ ( विभा १६०४ )
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org