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केवली
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केवली जीविताशंसा से मुक्त
केवली के मन, वचन का अभाव होने पर भले ही जाती है। मानसिक या वाचिक ध्यान न हो, परन्तु कायनिरोध का अन्तोमुहत्तद्धावसेसाउए जोगनिरोहं करेमाणे सूहमप्रयत्न रूप ध्यान क्यों नहीं होगा?
किरियं अप्पडिवाइसुक्कझाणं झायमाणे तप्पढमयाए ७. केवली : योगनिरोध की प्रक्रिया
मणजोगं निरंभइ, निरुभित्ता वइजोगं निरंभइ,
निरुभित्ता आणापाणनिरोहं करेइ, करेत्ता ईसि पज्जत्तमित्तसन्निस्स जत्तियाई जहन्नजोगिस्स ।
पंचरहस्सक्खरुच्चारधाए य णं अणगारे समूच्छिन्न किरियं होति मणोदब्बाइं तव्वावारो य जम्मत्तो ॥
अनियट्रिसुक्कझाणं झियायमाणे वेयणिज्ज आउयं नामं तदसंखगुणविहीणं समए समए निरुभमाणो सो।
गोत्तं च एए चत्तारि वि कम्मसे जुगवं खवेइ। मणसो सवनिरोहं करे असंखेज्जसमएहिं । पज्जत्तमेतबिंदियजहन्नवइजोगपज्जया जे उ।
(उ २९।७३) तदसंखगुणविहीणे समए समए निरंभंतो॥
केवली होने के पश्चात् वह शेष आयुष्य का निर्वाह सव्ववइजोगरोहं संखाईएहिं कुणइ समएहिं ।
करता है। जब अन्तर्मुहर्त परिमाण आयु शेष रहती है,
तब वह योगनिरोध करने में प्रवृत्त होता है। उस समय तत्तो य सुहमपणयस्स पढमसमओववन्नस्स ॥ जो किर जहन्नजोगो तदसंखेज्जगुणहीणमेक्कक्के ।
सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाति नामक शुक्लध्यान में लीन बना समए निरुंभमाणो देहतिभागं च मुंचंतो।।
हुआ वह सबसे पहले मनोयोग का निरोध करता है, फिर
वचनयोग का निरोध करता है, उसके पश्चात् आनापान रुंभइ स कायजोगं संखाईएहिं चेव समएहिं । तो कयजोगनिरोहो सेलेसीभावयामेइ ॥
(उच्छ्वास-निःश्वास) का निरोध करता है। उसके (Hay.६४ पश्चात् स्वल्पकाल तक पांच ह्रस्वाक्षरों-अ इ उ ऋ केवली का जीवनकाल जब अन्तर्महर्त मात्र शेष ल का उच्चारण किया जाए, उतने काल तक समूच्छिन्नरहता है, तब वह मन, वचन और काया की प्रवत्ति का क्रियाअनिवृत्ति नामक शुक्ल ध्यान में लीन बना हुआ निरोध करता है। उसकी प्रक्रिया इस प्रकार है
अनगार वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र-इन चारों शुक्ल ध्यान के तृतीय चरण (सूक्ष्म-क्रिया-अप्रति
विद्यमान कर्मों को एक साथ क्षीण करता है। पाति) में वर्तता हुआ वह सर्वप्रथम मनोयोग का निरोध ८.केवली: शैलेशी अवस्था करता है । जो जीव पर्याप्त है, संज्ञी है, जघन्य मनयोगी
हस्सक्खराइं मझेण जेण कालेण पंच भण्णंति । (सबसे कम मन की प्रवृत्ति करने वाला) है, उसके जितने
अत्थइ सेलेसिगओ तत्तियमेत्तं तओ कालं ॥ मनोद्रव्य (मन के पुद्गल) हैं और उनका जितना व्यापार
तणुरोहारंभाओ झायइ सुहमकिरियानियट्टि सो। (प्रवृत्ति) है, उससे असंख्येय गुणहीन मनोद्रव्य और
वच्छिन्नकिरियमप्पडिवाइं सेलेसिकालम्मि । व्यापार का प्रतिसमय निरोध करते-करते असंख्य समयों
(विभा ३०६८,३०६९) में उसका पूर्ण निरोध करता है।
'अ इ उ ऋ ल'-इन पांच ह्रस्वाक्षरों के उच्चारण उसके पश्चात् वचन योग का निरोध करता है।
काल तक केवली शैलेशी अवस्था में रहता है। यह पर्याप्तमात्र द्वीन्द्रिय प्राणी के जघन्य वचनयोग के पर्यायों
उच्चारण न अतिशीघ्र होता है, न प्रलम्ब, किन्तु मध्यम से असंख्येय गुणहीन वचनयोग-पर्यायों का प्रतिसमय निरोध करते-करते असंख्य समयों में वचनयोग का पूर्ण
भाव में होता है। काययोग के निरोध के प्रारंभ समय में निरोध करता है। फिर काययोग का निरोध करता है।
सूक्ष्मक्रियाअनिवृत्ति रूप शुक्लध्यान होता है और शैलेशी
अवस्था के समय समुच्छिन्नक्रियाअप्रतिपाति रूप शुक्लप्रथम समय के उत्पन्न सूक्ष्म पनक जीव के जघन्य काययोग से असंख्येय गुणहीन काययोग के पुद्गल और व्यापार
ध्यान होता है। (शुक्लध्यान के अंतिम दो विभागों के ये का प्रतिसमय निरोध करते-करते तथा शरीर की
नाम एक मतान्तर है।) अवगाहना के तीसरे भाग को छोड़ते (पोले भाग को ६. केवली जीविताशंसा से मुक्त पूरित करते हुए असंख्य समयों में काययोग का अकेवलिनो हि संयमजीवितं दीर्घमिच्छेयुरपि, (श्वासोच्छ्वास सहित) पूर्ण निरोध करता है। पूर्ण मुक्त्यवाप्ति इतः स्यादिति । केवलिनस्तु तदपि नेच्छन्ति, योगनिरोध होते ही अयोगी या शैलेशी अवस्था प्राप्त हो आस्तां भवजीवितमिति ।
(उशावृ प २४२)
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