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केवली : कायनिरोध ध्यान
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केवली
२. केवली के दो उपयोग युगपत नहीं
तीर्थंकर केवलज्ञान के द्वारा अर्थों को जानते हैं, नाणंमि दसणंमि अ इत्तो एगयरयंमि उवउत्ता। उनमें जो प्रज्ञापन योग्य हैं, उनका निरूपण करते हैं, वह सव्वस्स केवलिस्सा जुगवं दो नत्थि उवओगा। उनका वचनयोग है, शेष द्रव्यश्रुत है।
(आवनि ९७९) केवलज्ञानोपलब्धार्थाभिधायकः शब्दराशि: प्रोच्यकेवली के एक समय में दो उपयोग एक साथ नहीं मानस्तस्य भगवतो वागयोग एव भवति, न श्रुतम् । तस्य होते । केवली एक समय में ज्ञान और दर्शन - दोनों में भाषापर्याप्त्यादिनामकर्मोदयनिबन्धन से किसी एक में उपयुक्त होते हैं।
क्षायोपशमिकत्वात् । स च वाग्योग: श्रोतृणां भावश्रुतअंतोमुत्तमेव य कालो भणिओ तहोवओगस्स । कारणतया द्रव्यश्रुतं व्यवह्रियते। (नन्दीमव प १३९) साई अपज्जवसिउत्ति नत्थि कत्थइ विणिद्दिट्ठो।।
अर्हत् केवलज्ञान से परिज्ञात तत्व को शब्दों से परिणामियभावाओ जीवत्तं पिव सहाव एवायं ।
प्रतिपादित करता है, वह अर्थबोधक शब्दराशि अर्हत् का एगतरोवओगो जीवाणमणण्णहेउ त्ति ।।
वचनयोग है, श्रुतज्ञान नहीं । क्योंकि वह वचनयोग भाषा (विभा ३१३०,३१३५)
पर्याप्ति आदि नामकर्म के उदय से होता है और श्रुतज्ञान उपयोग का समय अन्तर्मुहुर्त ही कहा गया है । वह
क्षयोपशमजन्य है। वह वचनयोग श्रोता के भावश्रुत का सादि-अपर्यवसित है, ऐसा कहीं भी निर्दिष्ट नहीं है।
हेतु होने के कारण द्रव्यश्रुत कहलाता है। जैसे परिणामिक भाव के कारण जीवत्व जीव का
४. केवली नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी स्वभाव है, वैसे ही एकान्तर उपयोग भी जीव का स्वभाव है, क्योंकि वह भी पारिणामिक भाव है।
खयनाणी कि सण्णी न होइ होइ व खओवसमनाणी । केवलज्ञानकेवलदर्शनोपयोग चिन्तायां क्रमोपयोगादि- सण्णा सरणमणागचिता य न सा जिणे जम्हा ।। विषया सूरीणामनेकधा विप्रतिपत्तिः । सिद्धसेनाचार्यादयो
(विभा ५१८) ब्रुवते -एकस्मिन् काले केवली न त्वन्यश्छद्मस्थो जानाति क्षायोपशमिक ज्ञानी संज्ञी होते हैं, क्षयज्ञानी (केवली) पश्यति च नियमेन । अन्ये पूनराचार्या जिनभद्रगणिक्षमा- संज्ञी नहीं होते । संज्ञा का अर्थ है-अतीत का स्मरण श्रमणप्रभृतयः मन्यन्ते--- एकान्तरितं केवली जानाति और अनागत का चिन्तन । केवली इस संज्ञा से अतीत पश्यति चेति, एकस्मिन् समये जानाति एकस्मिन् समये होते हैं-वे नोसंज्ञी-नोअसंजी होते हैं। पश्यतीत्यर्थः ।
(नन्दीमवृ प १३४) ५. केवली के ई-पथिक बंध केवलज्ञान और केवलदर्शन के उपयोग के संबंध में
जाव सजोगी भवइ ताव य इरियावहियं कम्मं बंधइ आचार्यों की विभिन्न अवधारणाएं रही हैं। सिद्धसेन
सुहफरिसं दुसमयठिइयं । तं पढमसमए बद्धं बिइयसमए आदि आचार्य मानते हैं कि केवली निश्चित रूप से एक
वेइयं तइयसमए निज्जिण्णं। तं बद्धं पुठं उदीरियं वेइयं समय में जानते-देखते हैं, छद्मस्थ नहीं।
निज्जिण्णं सेयाले य अकम्मं चावि भवइ। (उ २९/७२) जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि अन्य आचार्यों की
जब तक मुनि सयोगी होता है तब तक उसके ईर्यामान्यता है ... केवली एक समय में जानते हैं, एक समय में देखते हैं।
पथिक कर्म का बंध होता है। वह बंध सुख-स्पर्श होता (केवलज्ञान और केवलदर्शन के उपयोग के बारे में
है। उसकी स्थिति दो समय की होती है। वह प्रथम तीन मत मिलते हैं- क्रमवाद, युगपत्वाद और अभेद
समय में बंधता है, दूसरे समय में उसका वेदन होता है वाद । क्रमवाद आगमानुसारी है। उसके मुख्य प्रवक्ता
और तीसरे समय में वह निर्जीर्ण हो जाता है। वह कर्म हैं -जिनभद्रगणि । युगपतवाद के प्रवक्ता हैं-मल्लवादी। बद्ध होता है, स्पृष्ट होता है, उदय में आता है, भोगा अभेदवाद के प्रवक्ता हैं-सिद्धसेन दिवाकर। देखें
जाता है, नष्ट हो जाता है और अन्त में अकर्म भी हो भगवती भाष्य ८।१८८ का टिप्पण।)
जाता है। ..केवली का बोलना वचनयोग
६. केवली : कायनिरोध ध्यान केवलनाणेणत्थे, नाउं जे तत्थ पण्णवणजोगे ।
होज्ज न मणोमयं वाइयं च झाणं जिणस्स तदभावे । ते भासइ तित्थयरो, वइजोग तयं हवइ सेसं ।।
कायनिरोहपयत्तस्सभावमि कोह निवारेइ ? | - (नन्दी ३३।२)
(विभा ३०७२)
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