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केवलज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया
समय अयोगी भवस्थ केवलज्ञान |
अथवा — चरम समय अयोगी भवस्थ केवलज्ञान | अयोगी अचरम समय भवस्थ केवलज्ञान ॥
५. सिद्धकेवलज्ञान : परिभाषा एवं प्रकार सव्वम्मविपक्को सिद्धो, तस्स जं णाणं तं सिद्धकेवलनाणं । (नन्दी पृ २५) सर्वकर्ममुक्त सिद्धों का ज्ञान सिद्ध केवलज्ञान है । केवलकम्मे हिं खीणेहिं सिद्धस्स तं सिद्ध केवलणाणं
भन्नति । ( आवचू १ पृ७४) 1. जब केवली के भवप्रत्ययिक कर्म क्षीण हो जाते हैं, तब वह सिद्ध अवस्था को प्राप्त करता है। सिद्ध का केवलज्ञान सिद्ध केवलज्ञान कहलाता है ।
सिद्ध केवलनाणं दुविहं पण्णत्तं तं जहा - अनंतर सिद्ध केवलनाणं च परंपरसिद्ध केवलनाणं च । ( नन्दी ३० ) सिद्ध केवलज्ञान के दो प्रकार हैं
१. अनन्तरसिद्ध केवलज्ञान २. परम्परसिद्ध केवलज्ञान अनन्तरसिद्ध केवलज्ञान
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सिम एगो केवली सिद्धो ततो जो अनंतरो fadीओ समतो तंमि अन्नो केवली सिद्धो, तस्स केवलिस्स जं णाणं तं अणंतरसिद्ध केवलनाणं भन्नति ।
( आवचू १ पृ७५) जिस समय में एक केवली सिद्ध होता है, उसके अनन्तर दूसरे समय में अन्य केवली सिद्ध होता है, उस केवली का ज्ञान अनन्तरसिद्ध केवलज्ञान है ।
अनंतरं णो समयंतरं पत्तं सिद्धत्वप्रथमसमयवर्तिनः । ( नन्दी पृ २६ )
सिद्ध अवस्था के प्रथम समय का ज्ञान अनन्तरसिद्ध केवलज्ञान है ।
अनन्तरसिद्ध केवलज्ञान के भेद
परम्परसिद्ध केवलज्ञान
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(प्र. सिद्ध)
पढमसमयसिद्धस्स जो बितियसमयसिद्धो सो परो, तस्स वि य अण्णो, एवं परंपरसिद्ध केवलनाणं भाणितव्वं । ( नन्दी चू पृ २७ ) प्रथम समय के सिद्ध की अपेक्षा से दूसरे समय का सिद्ध 'पर' है, तीसरे समय का जो सिद्ध है, वह भी 'पर' है - इस प्रकार परम्परसिद्धों का केवलज्ञान परम्परसिद्ध केवलज्ञान है ।
केवलज्ञान
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परंपरसिद्ध केवलनाणं अणेगविहं पण्णत्तं तं जहाअपढसमय सिद्धा, दुसमयसिद्धा, तिसमयसिद्धा, चउसमयसिद्धा जाव दससमयसिद्धा, संखेज्जसमयसिद्धा, असंखेज्जसमय सिद्धा, अनंतसमय सिद्धा । ( नन्दी ३२ ) परम्परसिद्ध केवलज्ञान अनेक प्रकार का हैअप्रथमसमय सिद्ध, द्विसमय सिद्ध, त्रिसमय सिद्ध, चतुःसमय सिद्ध यावत् दससमय सिद्ध, संख्येय समय सिद्ध, असंख्येय समय सिद्ध, अनन्त समय सिद्ध ।
६. केवलज्ञान प्राप्ति का हेतु
..... केवलियनाणलंभो नन्नत्थ खए
कसायाणं || ( आवनि १०४ )
केवलज्ञान की प्राप्ति कषाय के क्षय होने पर ही होती है ।
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'खीणकेवलनाणावरणे
।
( अनु २८२ ) केवलज्ञानावरणकर्म क्षीण होने पर केवलज्ञान उत्पन्न होता है, अतः वह क्षय निष्पन्न है । ७. केवलज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया
..... अट्ठविहस्स कम्मस्स कम्मराठिविमोयणयाए तप्पढमयाए जहाणुपुव्वि अट्ठवीसइविहं मोहणिज्जं कम्मं उघाएइ पंचविहं नाणावर णिज्जं नवविहं दंसणावर णिज्जं पंचविह अंतराय एए तिन्नि विकम्मंसे जुगवं खवेइ । तओ पच्छा अणुत्तरं अनंतं कसिणं पडिपुण्णं निरावरणं वितिमिरं विसुद्ध लोगालोगप्पभावगं केवलवरनाणदंसणं (उ२९।७२) समुप्पाडेइ ।
साधक सर्वप्रथम आठ कर्मों की जो कर्मग्रन्थि है, उसे खोलने के लिए उद्यत होता है । वह जिसे पहले कभी भी पूर्णतः क्षीण नहीं कर पाया, उस अट्ठाईस प्रकार वाले मोहनीय कर्म को क्रमश: सर्वथा क्षीण करता है, फिर वह पांच प्रकार वाले ज्ञानावरणीय, नौ प्रकार वाले दर्शनावरणीय और पांच प्रकार वाले अंतराय इन तीनों विद्यमान कर्मों को एक साथ क्षीण करता है । उसके पश्चात् वह अनुत्तर, अनन्त, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण, निरावरण, तिमिर रहित, विशुद्ध, लोक और अलोक को प्रकाशित करने वाले केवलज्ञान और केवलदर्शन को उत्पन्न करता है ।
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