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कायोत्सर्ग-प्रतिज्ञा सूत्र
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कायोत्सर्ग
अनेषणीय वस्तु ग्रहण
अवस्था और बल के अनुरूप स्थाणु की भांति निष्प्रकंप प्रतिक्रमण हेतु
८ उच्छवास का कायोत्सर्ग खड़े होकर कायोत्सर्ग करे। वह पंजों के बीच चार कालप्रतिलेखन-स्वाध्याय
अंगुल का अंतर रखकर, दाएं हाथ में मुखवस्त्रिका और प्रस्थापन में
बाएं हाथ में रजोहरण धारण कर शरीर की प्रवृत्ति का श्रुतस्कन्धपरिवर्तना
विसर्जन और परिकर्म का त्याग कर कायोत्सर्ग करे। के समय
२५ ॥
नियमा असमत्थत्तणेणं जावतिओ उद्वितओ सक्केति उच्छ्वास का कालमान
कातुं तावतिए तथा करेति, सेसे उवविट्ठो करेति ।
जतिए सक्केति उववेट्ठो कातुं तेत्तिकं करेति । सेसे पायसमा ऊसासा कालपमाणणं हंति नायव्वा ।। एयं कालपमाणं उस्सग्गेणं तु नायव्वं ॥
___असमत्थो संविट्ठो करेति। (आवचू २ पृ २५०) (आवनि १५३९)
शारीरिक असामर्थ्य के कारण जब तक खड़ा रह एक उच्छ्वास का कालमान है एक चरण (श्लोक
सके, तब तक खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करे, तत्पश्चात् बैठ के एक पाद) का स्मरण । इस प्रकार कायोत्सर्ग से
कर कायोत्सर्ग करे। इसमें भी असमर्थ हो तो लेटकर
कायोत्सर्ग करे। कालप्रमाण ज्ञातव्य है।
८. कायोत्सर्ग-प्रतिज्ञा सूत्र ५. अभिभव कायोत्सर्ग-कालमान
. तस्स उत्तरीकरणणं पायच्छित्तकरणेणं विसोहीकरसंवच्छरमुक्कोसं, अंतमुहुत्तं च अभिभवुस्सग्गे । ..
णणं विसल्लीकरणेणं पावाणं कम्माणं निग्घायणट्टाए वाहबलिना संवत्सरं कायोत्सर्गः कृतः ।
ठामि काउस्सग्गं.""जाव अरहंताणं भगवंताणं नमोक्का(आवनि १४५८ हावृ २ पृ १८८)
रेणं न पारेमि ताव काय ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं अभिभव कायोत्सर्ग का जघन्य कालमान अन्तर्मुहूर्त
वोसिरामि।
(आव ५।३) तथा उत्कृष्ट कालमान एक वर्ष का होता है। अर्हत् ऋषभ के पुत्र बाहबलि एक वर्ष तक कायोत्सर्ग की मुद्रा
मैं अविधिकृत आचरण के परिष्कार, प्रायश्चित्त, में रहे।
विशोधन और शल्य-विमोचन द्वारा पापकर्मों को नष्ट
करने के लिए कायोत्सर्ग करता हूं। ६. कायोत्सर्ग का अधिकारी
___ जब तक मैं अर्हत् भगवान् को नमस्कार कर, उसे वासीचंदणकप्पो जो मरणे जीविए य समसण्णो। सम्पन्न न करूं तब तक मैं स्थिर मुद्रा, मौन और शुभदेहे य अपडिबद्धो काउस्सग्गो हवइ तस्स ॥ ध्यान के द्वारा अपने शरीर का विसर्जन करता है।
(आवनि १५४८)
___."अन्नत्थ ऊससिएणं नीससिएणं खासिएणं छीएणं जो मुनि वसौले से काटने या चंदन का लेप करने पर समता रखता है, जीवन और मरण में सम रहता
जंभाइएणं उड्डुएणं वायनिसग्गेणं भमलीए पित्तमुच्छाए
सुहुमेहिं अंगसंचालेहिं सुहुमेहिं खेलसंचालेहिं सुहुमेहिं है तथा देह के प्रति अप्रतिबद्ध है, उसी के कायोत्सर्ग होता है।
दिट्ठिसंचालेहिं एवमाइएहिं आगारेहिं अभग्गो अविराहिओ होज्ज मे काउस्सग्गो"।
(आव ५१३) ७. कायोत्सर्ग विधि
उच्छ्वास, निःश्वास, खांसी, छींक , जम्हाई, डकार, निक्कडं सविसेसं वयाणुरूवं बलाणुरूवं च । अधोवायु, चक्कर, पित्तजनितमूर्छा, शारीरिक अवयवों खाणुव्व उद्धदेहो काउस्सग्गं तु ठाइज्जा ॥ का, कफ और दृष्टि का सूक्ष्म संचालन-ये प्रवृत्तियां चउरंगुल मुहपत्ती उज्जुए डब्बहत्थ रयहरणं । । कायोत्सर्ग में बाधक नहीं बनेंगी। इस प्रकार की अन्य वोसट्ठचत्तदेहो काउस्सग्गं करिज्जाहि ॥ स्वाभाविक और विकारजनित बाधाओं के द्वारा भग्न
(आवनि १५४१,१४४५) और विराधित नहीं होगा मेरा कायोत्सर्ग-ये कायोमुनि मायारहित होकर, विशेष रूप से अपनी त्सर्ग के अपवाद हैं।
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