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कषाय का निर्वचन
संस्थानमप्येतेषां परस्परं विभिन्नमेव । तद्यदि भूतमात्रनिमित्तं चैतन्यं तत एकयोनिकाः सर्व्वे ऽप्येकवर्णसंस्थाना भवेयुः, न च भवन्ति । तस्मादात्मन एव तत्तत्कर्म्मवशात् तथोत्पद्यन्ते इति प्रतिपत्तव्यम् । ( नन्दीमवृप ४ ) समान योनि वाले प्राणी भी विचित्र वर्ण और संस्थान वाले होते हैं । जैसे- गोबर आदि की एक ही योनि में उत्पन्न कोई प्राणी नील वर्ण वाले और कोई पीत वर्ण वाले होते हैं । यदि चैतन्य को भूतमात्र से होने वाला माना जाये तो एक योनिक प्राणियों के समान वर्ण और समान संस्थान होना चाहिये, पर ऐसा होता नहीं है । इसलिए यह सिद्ध है कि आत्मा ही अपने-अपने कर्म के अनुसार उत्पन्न होती है।
कम्मस्स वि परिणामो सुहम्म ! धम्मो स पोग्गलमयस्स । ऊ चित्तो जगओ होई सहावो त्ति को दोसो ? ॥
( विभा १७९३ )
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पौद्गलिक कर्म का स्वभाव है- परिणमन । यह विविध प्रकार का होता है । जगत् की विचित्रता का यही हेतु है ।
कर्मभूमि- पांच भरत, पांच ऐरवत और पांच विदेह - ये पन्द्रह कर्मभूमियां हैं । यहां कर्म - असि, मषि, कृषि से आजीविका चलाई जाती है ।
(द्र. मनुष्य ) कर्मसम्पदा - दस विध सामाचारी की सम्पदा ।
कम्मसंपयति कर्म - क्रिया दशविधचक्रवालसामाचारीप्रभृतिरितिकर्त्तव्यता । तस्याः सम्पत् - सम्पन्नता । ..... कर्म सम्पदा - यत्यनुष्ठानमाहात्म्य समुत्पन्नपुलाकादिलब्धिसम्पत्त्या । (उशावृ प ६६)
अक्खीणमहाणसीयादिलद्धिजुत्तो । ( उचू पृ ४४)
कर्मसम्पदा के दो अर्थ हैं - १ दस प्रकार की चक्रवाल सामाचारी आदि की सम्पदा । २. मुनि के अनुष्ठान के माहात्म्य से उत्पन्न पुलाक, अक्षीणमहानस आदि योगज विभूतियों की सम्पदा । कर्मांश - विद्यमान कर्म
'कम्मंस' त्ति सत्पर्यायत्वात् सत्कर्माणि ग्राहीणि क्षपयति ।
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कार्मग्रन्थिकपरिभाषयांऽशशब्दस्य केवलिसत्कर्माणि - भवोप
( उशावू प ५८९ )
कर्म ग्रन्थ की परिभाषा के अनुसार कर्माश का अर्थ है - विद्यमान कर्म ( अंश = सत् = विद्यमान ) । शुक्लध्यान के चतुर्थ चरण में केवली के जो भवोपग्राही चार अघात्य कर्म विद्यमान रहते हैं, वे क्षीण हो जाते हैं । कल्पातीत - जिनमें स्वामी सेवक का भेद नहीं होता, सब अहमिन्द्र - समान होते हैं, वे देव | (द्र देव ) कल्पोपग - जिनमें स्वामी सेवक, छोटे-बड़े आदि का भेद होता है, वे देव । (द्र. देव)
कषाय - मोहजनित आंतरिक उत्ताप ।
१. कषाय का निर्वचन
* कषाय : मोहनीय कर्म का एक भेद
२. कषाय के प्रकार
३. कषाय से होने वाले अभिघात ४. कषाय की स्थिति और उत्पत्तिस्थल ५. कषाय के उदाहरण
६. कषाय : पुनर्जन्म का हेतु ७. कषाय पतन का हेतु ८. कषाय-विजय के उपाय ९. कषाय प्रत्याख्यान के परिणाम १०. कषाय के द्रव्य आदि अन्य प्रकार * कषाय प्रतिसंलीनता * कषाय उपशम-क्षय की प्रक्रिया * कषायनिरोध भाव ऊनोदरी * कषाय और लेश्या
* कषाय : शिक्षा का बाधक तत्त्व
कषाय
( द्र. कर्म )
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(द्र प्रतिसंलीनता)
(द्र. गुणस्थान )
(द्र. ऊनोदरी) (द्र. लेश्या)
(द्र शिक्षा )
१. कषाय का निर्वचन
कम्मं कस भवो वा कसमाओ सिं जओ कसाया तो । कसमाययंति व जओ गमयंति कसं कसायति ॥ ( विभा २९७८ )
१. जिससे प्राणी पीड़ित होते हैं वह है कष अर्थात् कर्म या भव । जिनसे कर्म या भव की प्राप्ति होती है, वह है कषाय ।
२. जो कष- संसार को प्राप्त कराते हैं, वे हैं कषाय ।
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