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संवेजनी कथा
४. दव-जीवातिचिता णिपुणमतीसु सोतारेसु विविधभंगणवादसमुपगूढा दिट्टिवादअक्खेवणी |
( अचू पृ ५६ )
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आक्षेपणी कथा के चार प्रकार हैं१. आचार आक्षेपणी — जिसमें साधु के आचार और तप का निरूपण हो । २. व्यवहार आक्षेपणी- जिसमें व्यवहार प्रायश्चित्त का निरूपण हो ।
३. प्रज्ञप्ति आक्षेपणी- जिसमें संशयग्रस्त श्रोता को समझाने के लिए निरूपण हो । ४. दृष्टिवाद आक्षेपणी- जिसमें श्रोता की योग्यता के अनुसार विविध नयदृष्टियों से तत्त्व का निरूपण हो ।
विक्षेपणी कथा
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जा ससमयवज्जा खलु होइ कहा लोग - वेयसंजुत्ता । परसमयाणं च कहा एसा विक्खेवणी नाम ॥ जा ससमएण पुव्वि अक्खाया तं छुभेज्ज परसमए । परसासणवक्खेवा परस्स समयं परिकहेति ॥ (दनि ९८,९९ )
स्व- सिद्धान्त से शून्य तथा रामायण, वेद आदि लौकिक सिद्धान्तों से युक्त और पर- सिद्धान्त का कथन करने वाली कथा विक्षेपणी कथा है ।
स्व-सिद्धान्त की बात का पर- सिद्धान्तों में क्षेपण करना तथा कथ्यमान परशासन के व्याक्षेप के द्वारा परसमय का कथन करना विक्षेपणी कथा है ।
विक्षिप्यतेऽनया सन्मार्गात् कुमार्गे कुमार्गाद्वा सन्मार्गे श्रोतेति विक्षेपणी । ( दहावृप १११ ) जिस कथा को सुनकर श्रोता सन्मार्ग से कुमार्ग में अथवा कुमार्ग से सन्मार्ग में प्रस्थित होता है, वह विक्षेपणी कथा है।
कहिऊण ससमयं तो कहेइ परसमयमह विवच्चासा । मिच्छा सम्मावाए एमेव हवंति दो भेया ॥ ( दहावृप ११० ) विक्षेपणी कथा के चार प्रकार हैं१. अपने सिद्धांत का प्रतिपादन कर फिर दूसरों के सिद्धांत का प्रतिपादन करना ।
२. दूसरों के सिद्धांत का प्रतिपादन कर फिर अपने सिद्धांत की स्थापना करना ।
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३. सम्यकवाद का प्रतिपादन कर फिर मिथ्यावाद का प्रतिपादन करना ।
४. मिथ्यावाद का प्रतिपादन कर फिर सम्यग्वाद की
स्थापना करना ।
कथा
कथा-कथन का पौर्वापर्य
वेणतितस्स पढमया कहा उ अक्खेवणी कहेतव्वा । तो ससमयगतित्थे कहेज्ज विक्खेवणी पच्छा ॥ अक्खेवणिअक्खित्ता जे जीवा ते लभंति सम्मत्तं । विक्खेवणीए भज्जं गाढतरागं व मिच्छत्तं ॥ ( दनि १०३, १०४ ) सर्वप्रथम श्रोता को आक्षेपणी कथा सुनानी चाहिए । इससे स्व-सिद्धांत का अर्थ जान लेने पर विक्षेपणी कथा करनी चाहिए। आक्षेपणी कथा से आकृष्ट श्रोता सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । विक्षेपणी कथा में सम्यक्त्व की प्राप्ति वैकल्पिक है । अपने मिथ्या अभिनिवेश के कारण श्रोता इस कथा से सघन मिथ्यात्व को भी प्राप्त कर सकता है ।
संवेजनी कथा
वीर - विव्वणिड्ढी नाण-चरण-दंसणस्स तह इड्ढी । उवइस्सइ खलु जहियं कहाइ संवेयणीइ रसो ॥
( दनि १०० ) आकाशगमनजङ्घाचारणादि'ज्ञानचरणदर्शनानां तथद्ध:' चोद्दसपुव्वी घडाओ घडविउव्वित्तए ?, हंता पहू
( दहावृप ११२ ) जिस कथा में संवेग के सारभूत रस का प्रतिपादन होता है, वह संवेजनी कथा है। जैसे वीर्यवैंक्रियऋद्धियह तप के सामर्थ्य से उत्पन्न होती है । इस लब्धि वाला व्यक्ति मेरुपर्वत पर जाने की शक्ति अर्जित कर लेता है ।
इससे आकाशगमन और जंघाचारण की शक्ति के साथ विविध रूपों के निर्माण की क्षमता भी पैदा हो जाती है ।
यह ऋद्धि ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप भी होती है। चौदहपूर्वी मुनि एक घट से हजार घट और एक पट से हजार पट बना सकता है - यह ज्ञान ऋद्धि है ।
तपःसामर्थ्योद्भवा
वीर्य क्रियनिर्माणलक्षणा तत्र ज्ञानद्धः 'पभू णं भंते ! सहस्सं पडाओ पडसहस्सं विउव्वित्तए । '
सुभाणं कम्माणं विपाककहणेणं संवेगमुप्पाएति - जहा इहलोए चेव इमाओ लद्धीओ सुभकम्माणं भवति । ( अचू पृ ५७ )
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