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उपधि
जो कल्प (वस्त्र) शरीर प्रमाण लंबा और ढाई हाथ चौड़ा होता है, मुनि ऐसे तोन कल्प रख सकता है - दो सूती और एक ऊनी । तणगहणानलसेवानिवारणा दिट्ठ कप्परगहणं
धम्मसुक्कझाणट्ठा । चेव ॥ (ओनि ७०६ )
कल्प ग्रहण के प्रयोजन
• तृण ग्रहण के निवारण के लिए ।
० अग्नि सेवन के वर्जन के लिए ।
०
धर्म शुक्ल ध्यान के समय शीत आदि से बचने के लिए ।
• ग्लान के संरक्षण के लिए ।
• मृत
गिलाणमरणट्टया
' को आच्छादित करने के लिए ।
चोलपट्ट
दुगुणो चउग्गुणो वा हत्था चउरंस चोलपट्टो उ । थेर जुवाणाणट्ठा सण्हे थुल्लंमि य
विभासा ॥ (ओनि ७२१) एवं श्लक्ष्ण तथा मोटा चोलपट्ट
स्थविरों के लिए दो हाथ प्रमाण युवा मुनि के लिए चार हाथ प्रमाण एवं विहित है ।
संघाटी
....संघाडीओ चउरो तत्थ दुहत्था उवसयंमि ॥ दोणि तिहत्थायामा भिक्खट्टा एग एग उच्चारे । ओसरणा चउहत्था णिसन्नपच्छायणी मसिणा ॥ ( ओभा ३१८,३१९ ) साध्वी चार संघाटी (पछेवड़ी) रख सकती है । उनका प्रमाण और उपयोग इस प्रकार होता है१. दो हाथ लम्बी पछेवड़ी - उपाश्रय में । २. तीन हाथ लम्बी पछेवड़ी - भिक्षा के समय । ३. तीन हाथ लम्बी पछेवड़ी - उत्सर्ग के समय । ४. चार हाथ लम्बी पछेवड़ी - समवसरण ( परिषद्) में ।
संस्तारक- उत्तरपट्ट
संथारुत्तरपट्टो अड्ढाइज्जा य आयया हत्था । दोपि य वित्थारो हत्थो चउरंगुलं चेव ॥ (ओनि ७२३ ) ढाई हाथ तथा
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संस्तारक और उत्तरपट्ट की लम्बाई चौड़ाई एक हाथ चार अंगुल होती है ।
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पात्रबन्ध आदि
पात्र
तिणि विहत्थी चउरंगुलं च भाणस्स मज्झिमपमाणं । इत्तो हीण जहन्नं अइरेगतरं तु उक्कोसं ॥ (ओनि ६८० ) एक धागे से 'वृत्त और समचतुरस्र पात्र को अधः, ऊर्ध्व तिर्यक् मापने पर यदि धागा तीन बालिश्त चार अंगुल होता है तो वह पात्र मध्यम प्रमाण है । इससे हीन होने पर जघन्य और अतिरिक्त होने पर उत्कृष्ट प्रमाण है ।
छक्कायरक्खणट्ठा पायग्गहणं जिणेहि पन्नत्तं । जे य गुणा संभोए हवंति ते पायगहणेवि ।। अतरंतबालबुड्ढ सेहाएसा गुरू असहुवग्गे । साहारणोग्गहालद्धिकारणा पादगहणं तु ॥ (ओनि ६९१, ६९२ )
छह जीवनिकाय की रक्षा के लिए पात्रग्रहण विहित है । मंडली - संभोज में जो लाभ हैं, वे पात्रग्रहण में भी हैं । ग्लान, बाल, शैक्ष, गुरु, वृद्ध, असहिष्णु और अलब्धिमान् इन सबके उपकार के लिए पात्र ग्रहण अपेक्षित है । मंडली -संभोज (द्र. आहार ) आयरिए य गिलाणे पाहुणए दुल्लभे सहसदाणे । संसत्तभत्तपाणे मत्तगपरिभोग अणुनाओ ॥ (ओनि ७१६)
आचार्य, ग्लान और अतिथि के लिए तथा दुर्लभ द्रव्य ग्रहण, सहसा ग्रहण एवं संसक्त भक्तपान ग्रहण के लिए मात्रक ( पात्रविशेष ) का उपयोग अनुज्ञात है । पात्रबन्ध आदि
पत्ताबंध माणं भाणपमाणेण होइ कायव्वं । जह गठिमि कयंमि कोणा चउरंगुला हुंति ॥ पत्तट्ठवणं तह गुच्छओ य पायपडिलेहणीआ य । तिहंपि यप्पमाणं विहत्थि चउरंगुलं चेव ॥ (ओनि ६९३,६९४ ) पात्रबन्ध --- यह भाजनप्रमाण होता है तथा गांठ लगाने पर दोनों कोण चार अंगुलप्रमाण होते हैं। पात्रस्थापन, पात्रकेसरिका तथा गोच्छग ये तीनों एक बालिश्त चार अंगुल प्रमाण होते हैं ।
यमादिरक्खट्ठा पत्तट्ठवणं जिणेहिं पन्नत्तं । होइ पमज्जणहेउं तु गोच्छओ भाणवत्थाणं ॥
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