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कल्प
जिनकल्पी को उपधि
पत्तं पत्ताबंधी पायट्टवणं च पायकेसरिया । पडलाई रत्ताणं च गुच्छओ पायनिज्जोगो ॥ तिन्नेव य पच्छागा रयहरणं चैव होइ मुहपत्ती । एसी दुवासविहो उवही जिणकप्पियाणं तु ॥ (ओनि ६६८, ६६९)
जिनकल्पिक की ओघ उपधि के बारह प्रकार हैंपात्र, पात्रबन्ध, पात्रस्थापन, पात्रकेसरिका ( पात्रमुखवस्त्रिका ), पटल, रजस्त्राण, गोच्छग, तीन प्रच्छादक ( कल्प), रजोहरण और मुखवस्त्रिका | स्थविरकल्पो की उपधि
एए चैव दुवाल मत्तग अइरेगचोलपट्टो य । एसो चउद्दसविहो उवही पुण थेरकप्पम्मि ||
( ओनि ६७० ) स्थविरकल्पी की ओघ उपधि के चौदह प्रकार हैंपात्र, पात्रबन्ध, पात्रस्थापन, पात्रकेसरिका, पटल, रजस्त्राण, गोच्छग, रजोहरण, मुखवस्त्रिका, तीन प्रच्छादक, चोलपट्ट और मात्रक ( पात्र विशेष ) ।
साध्वी की उपधि
पत्तं पत्ताबंधो पायवणं च पायकेसरिया | पडलाइं रयत्ताणं च गोच्छओ पायनिज्जोगो ॥ तिन्नेव य पच्छागा रयहरणं चेव होइ मुहपत्ती । तत्तो य मत्तगो खलु चउदसमो कमढगो चेव ॥ उग्गहत पट्टो अद्धोरुग चलणिया य बोद्धव्वा । अभितर बाहिरियं सनियं तह कंचुगे चेव ॥ उक्कच्छिय वेकच्छी संघाडी चेव खंधकरणी य । ओहोहम एए अज्जाणं पन्नवीसं तु ॥ (ओनि ६७४-६७७) साध्वी की ओघ उपधि के पच्चीस प्रकार हैंपात्र, पात्रबंध, पात्रस्थापन, पात्रकेसरिका, पटल, रजस्त्राण, गोच्छग, रजोहरण, मुखपत्ती, मात्रक, कमठक ( भोजनपात्र), चार संघाटी (प्रच्छादिका), उपग्रहणंतक, पट्ट, अर्धोरुक, चलनिका, औपकक्षिका (वस्त्र विशेष ), वैकक्षिका (उत्तरासंग), कंचुक, स्कन्धकरणी, अंतोनियंसणी, बाह्य नियंसणी ।
४. उपधि का प्रमाण और प्रयोजन रजोहरण
दंडो से ।
बत्तीसंगुलदीहं चउवीसं अंगुलाई अट्ठगुला दसाओ एगयरं हीणमहियं वा ॥
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(ओनि ७०८ )
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उपधि
रजोहरण की दीर्घता बत्तीस अंगुल प्रमाण, दण्ड चौबीस अंगुल तथा दर्शिका आठ अंगुल प्रमाण होती है । यह प्रमाण कदाचित् न्यूनाधिक भी हो सकता है । उणयं उट्टियं वावि, कंबलं पायपुंछणं । तिपरीयल्लमणिस्सट्ठ, रयहरणं धारए एगं ॥ (ओनि ७०९ )
जोहरण के तीन प्रकार हैं औणिक, औष्ट्रिक और कंबलमय । मुनि को तीन वेष्टन वाला मृदु रजोहरण धारण करना चाहिए ।
आयाणे निक्खेवे ठाणनिसीयण पुब्वं पमज्जणट्टा लिंगट्टा चेव
(ओनि ७१० ) वस्तु को लेने रखने से पूर्व, कायोत्सर्ग, निषीदन, शयन और हाथ-पैरों के संकोच - प्रसार से पूर्व रजोहरण से, प्रमार्जन करना चाहिए। यह मुनि का लिंग चिह्न है । मुखवस्त्रिका
चउरंगुलं विहत्थी एवं मुहणंतगस्स बितियं मुहम्पमाणं गणणपमाणेण
तुयट्टसंकोए । रयहरणं ॥
उपमाणं । एक्केक्कं ॥
(ओनि ७११)
चार कोण वाली मुखवस्त्रिका एक बालिश्त चार अंगुल प्रमाण होती है । अथवा वह मुखप्रमाण होती है - स्थान प्रमार्जन करते समय जिससे मुख ढका जा सके तथा गर्दन के पीछे गांठ लगाई जा सके, उतने प्रमाण वाली होती है । गणना की दृष्टि से प्रत्येक मुनि एकएक मुखवस्त्रिका रख सकता है ।
संपातिमरयरेणू पमज्जण वट्ठायंति मुहपत्ति | नासं मुहं च बंधइ तीए वसहि पमज्जतो ॥ (ओनि ७१२)
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बोलते समय संपातिम जीवों की रक्षा के लिए ( हिंसा से बचने के लिए) मुख पर मुखवस्त्रिका लगाई जाती है। सचित्त रजों तथा रेणुओं के प्रमार्जन के लिए और स्थान प्रमार्जन के समय रजों से सुरक्षा के लिए नाक और मुंह को बांधने हेतु इसका उपयोग किया जाता है ।
कल्प
कप्पा आयपमाणा अड्ढाइज्जा उ वित्थडा हत्था । दो चेव सोत्तिया उन्निओ य तइओ मुणेयव्वो ॥
(ओनि ७०५ )
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