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अनाश्रव कौन ?
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आश्रव
जिससे कर्मों का आगमन होता है, वह आश्रव ५. संवर के प्रकार है । हिंसा आदि आश्रव कर्मों के उपादान हेतु हैं।
पञ्चाश्रवाद्विरमणं पञ्चेन्द्रियनिग्रहः कषायजयः । जीवस्स कम्मबंधत्ताए परिणममाणाण पोग्गलाण
दण्डत्रयविरतिश्चेति संयमः सप्तदशभेदः ।। आगमो आसवो तस्स दाराणि आसवदाराणित्ति ।
(नन्दीमवृ प ४३) आसवदारेहि पिहितेहिं जा अज्झवसायतण्हा सा
संवर के सतरह प्रकार हैं-प्राणातिपातविरमण, वोच्छिण्णा भवति । तण्हाए वोच्छिण्णाए प्रशमो भवति ।
मृषावादविरमण, अदत्तादानविरमण, मैथुनविरमण, (आव २ पृ३१४)
परिग्रहविरमण, स्पर्शनेन्द्रियनिग्रह, रसनेन्द्रियनिग्रह, आत्मा में कर्मबंध के रूप में परिणत होने वाले
घ्राणेन्द्रियनिग्रह, चक्षुरिन्द्रियनिग्रह, श्रोत्रेन्द्रियनिग्रह, पुद्गलों के आगमन के द्वारों को आश्रव कहा जाता है।
क्रोधविवेक, मानविवेक, मायाविवेक, लोभविवेक, आश्रवद्वारों का निरोध करने से तृष्णा का अध्यवसाय
मनोदण्डविरति, वचनदण्डविरति, कायदण्डविरति । क्षीण होता है, जिससे प्रशम भाव विकसित होता है।
नियमो द्विधा -इन्द्रियनियमो नोइन्द्रियनियमश्च । २. आश्रव के प्रकार
नोइन्द्रियनियम:-क्रोधादिकः आदिग्रहणान्मानमायापाणातिवातादीणि पंच आसवदाराणि ।
लोभा गृह्यन्ते, एतेषां नियमो निरोधः । (दअचू पृ६३)
(ओनि प ११३,११४) आश्रवद्वार पांच हैं-प्राणातिपात, मृषावाद,
संवर (नियम) के दो प्रकार हैं
१. इन्द्रियनियमन--पांच इन्द्रियों का निरोध । अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह । अथवा
२. नोइन्द्रियनियमन--क्रोध, मान, माया और लोभ मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः ।
__ का निरोध ।
(विभामवृ पृ ६८५) आश्रव पांच हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, ६. संवर (विनिवर्तना) के परिणाम कषाय, योग। आश्रव बंध के हेतु हैं।
विणियद्रणयाए णं पावकम्माणं अकरणयाए
अब्भठेइ । पुत्वबद्धाण य निज्जरणाए तं नियत्तेइ तओ ३. आश्रवनिरोध : संवर
पच्छा चाउरंत संसारकतारं वीइवयइ। (उ २९३३) संवरो नाम पाणवहादीण आसवाणं निरोहो भण्णइ।
विनिवर्तना (संवर) से जीव नए सिरे से पापकर्मों (दजिचू पृ १६२)
को नहीं करने के लिए तत्पर रहता है और पूर्वअजित संवरः गूप्त्यादिभिराश्रवनिरोधः।
पापकर्मों का क्षय कर देता है- इस प्रकार वह पापकर्म (उशावृ प ५६२)
का विनाश कर देता है। उसके पश्चात् चार गति रूप प्राणातिपात आदि आश्रवों का निरोध सवर है।
चार अंतों वाली संसार अटवी को पार कर जाता है। गप्ति आदि की साधना के द्वारा आश्रवों का निरोध
७. अनाव कौन ? करना 'संवर' है।
पाणवहमुसावाया, अदत्तमेहणपरिग्गहा विरओ। ४. आश्रव-संवर-हेतु
राईभोयणविरओ, जीवो भवइ अणासवो।। जे जत्तिआ अ हेऊ भवस्स ते चेव तत्तिया मूक्खे ।"
पंचसमिओ तिगुत्तो, अकसाओ जिइंदिओ। इरिआवहमाईआ जे चेव हवंति कम्मबंधाय ।
अगारवो य निस्सल्लो, जीवो होइ अणासवो ।। अजयाणं ते चेव उ, जयाण निव्वाणगमणाय ।।
(उ ३०।२,३) (ओनि ५३.५४) प्राणवध, मृषावाद, अदत्त-ग्रहण, मैथन, परिग्रह जितने संसार के हेतु हैं -आश्रव हैं, उतने ही मोक्ष और रात्रि-भोजन से विरत जीव अनाश्रव होता है। के हेतु हैं संवर हैं । अयतना से की गई गमन-आगमन पांच समितियों से समित, तीन गुप्तियों से गुप्त, की क्रिया बन्ध का कारण है। वही क्रिया यतना से अकषाय, जितेन्द्रिय, ऋद्धि-रस-सात-इस गौरव-त्रिक करने पर मोक्ष का कारण बन जाती है।
से रहित और निःशल्य जीव अनाथव होता है।
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