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ईहा: परिभाषा
आभिनिबोधिक ज्ञान
उवगयं हवइ । तओ णं धारणं पविसइ, तओ णं धारेइ समए समए गिण्हइ दवाइं जेण मुणइ य तमत्थं । संखेज वा कालं, असंखेज्ज वा कालं। (नन्दी ५३) जं चिदिओवओगे वि वंजणावग्गहेऽतीते ॥
होइ मणोवावारो पढमाओ चेव तेण समयाओ । एक व्यक्ति ने कुंभकार के जलते आवे के ऊपर से
होइ तदत्थग्गहणं तदण्णहा न पवत्तेज्जा ।। एक शराव लिया। उस पर पानी की एक बूंद डाली।
(विभा २४२, २४३) वह सूख गई । दूसरी बूंद डाली और वह भी सूख गई।
किसी पदार्थ के चिन्तन के समय समनस्क जीव प्रति इस प्रकार बूंदें डालते-डालते एक अंतिम बूंद ऐसी भी
समय मनोद्रव्य ग्रहण करता है। ग्रहण के प्रथम समय से गिरी जो शराव में ठहरी। एक-एक बूंद गिरते-गिरते
ही मन की प्रवृत्ति प्रारम्भ हो जाती है, उसे पदार्थ का वह शराव पानी से भर गया और फिर बूंद के गिरने से
अर्थबोध होने लग जाता है। अतः मन के व्यञ्जनावग्रह उससे पानी बाहर बहने लगा।
नहीं होता। यदि प्रथम समय में मन को अर्थबोध नहीं इसी प्रकार जब व्यंजन (कान) अनन्त पुद्गलों से होता है तो अग्रिम क्षणों में भी मन की प्रवत्ति नहीं हो भर जाता है तब व्यक्ति 'हूं' ऐसा करता है। पर वह
सकती। नहीं जानता कि ये शब्द आदि क्या हैं ? तब वह ईहा में
इन्द्रियों के उपयोगकाल में अर्थावग्रह से ही मन की प्रवेश करता है उस समय वह जान जाता है कि यह प्रवत्ति प्रारम्भ होती है, व्यञ्जनावग्रहकाल में नहीं अमुक शब्द है। फिर अवाय में उसे शब्द का निश्चय हो
होती। जाता है । उसके बाद धारणा में प्रवेश करता है। तब
८. अर्थावग्रह : परिभाषा वह ज्ञान संख्यात काल अथवा असंख्यात काल तक बना रह सकता है।
दव्वं माणं पूरियमिदियमापूरियं तहा दोण्हं ।
अवरोप्पसंसग्गो जया तया गिण्हइ तमत्थं ।। ज्ञान है या अज्ञान
सामन्नमणिद्देसं सरूव-नामाइकप्पणार हियं ।'.. अण्णाणं सो बहिराइणं व तक्कालमणवलंभाओ ।
(विभा २५१, २५२) न तदंते तत्तो च्चिय उवलंभाओ तओ नाणं ॥ ___ जब व्यञ्जनावग्रह में श्रोत्र आदि इन्द्रियां शब्द
(विभा १९५) आदि द्रव्यों से आपूरित होती हैं, तब द्रव्य और इन्द्रिय 'व्यञ्जनावग्रह अज्ञान है। इसमें इन्द्रिय और विषय का परस्पर ससग होता है। उस संसगं के पश्चात् के संबंध काल में ज्ञान की अनुभूति नहीं होती जैसे
सामान्य, अनिर्देश्य (अनभिलाप्य) तथा स्वरूप, नाम, बधिर व्यक्ति को प्रारंभ में ज्ञान की अनुभूति नहीं जाति आदि की कल्पना से रहित अर्थ का ग्रहण होना होती'—यह कथन अयुक्त है। व्यञ्जनावग्रह के अनन्तर ।
अर्थावग्रह है। अर्थावग्रह ज्ञान होता है। यद्यपि व्यञ्जनावग्रह में ज्ञान की अनुभूति नहीं होती, किन्तु वह ज्ञान का कारण है,
अत्थुग्गहे छव्विहे पण्णत्ते, तं जहा-सोइंदिय अत्थुअतः वह भी ज्ञान है।
ग्गहे, चक्खिदियअत्थुग्गहे, घाणिदियअत्थुग्गहे, जिब्भि
दियअत्थुग्गहे, फासिदियअत्थुग्गहे, नोइंदियअत्थुग्गहे । चक्षु और मन का व्यंजनावग्रह नहीं
(नन्दी ४२) नयन-मणोवज्जि दिय भेयाओ वंजणोग्गहो चउहा ।"" अर्थावग्रह के छह प्रकार हैं-१. श्रोत्रेन्द्रिय अर्थाव
(विभा २०४) ग्रह, २. वक्षुरिन्दिय अर्थावग्रह, ३. ध्राणेन्द्रिय अर्थावलोयणमपत्तविसयं मणो व्व जमणुग्गहाइसुण्णं ति ।... ग्रह, ४. जिव्हेन्द्रिय अर्थावग्रह, ५. स्पर्शनेन्द्रिय अर्थावग्रह,
(विभा २०९) ६. नोइन्द्रिय अर्थावग्रह । चक्षु और मन का व्यंजनावग्रह नहीं होता।
६. ईहा : परिभाषा चक्ष और मन विषय से असंबद्ध रहकर उसका ज्ञान इय सामण्णग्गहणाणंतरमीहा सदस्थवीमंसा । कर लेते हैं, अत: ये अप्राप्यकारी हैं। ये ग्राह्य-वस्तु-कृत किमिदं सहोऽसहो को होज्ज व संखसंगाणं ।। भनुग्रह-उपघात से शून्य हैं।
(विभा २८९)
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