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संशय आदि विज्ञान
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आत्मा
जगत् को व्यात्मक मानता है। जैसे -जीव, अजीव, आत्मा स्थूल शरीर को छोड़कर भवान्तर से आती जीव-अजीव; सत्, असत्, सद्-असत् ।
है, भवान्तर में जाती है। उसके साथ दो सूक्ष्म शरीर आत्मा-अविनाशी चेतन द्रव्य, चेतनामय असंख्य
(तेजस-कार्मण) सदा रहते हैं, फिर भी वह आतेप्रदेशों का अविभाज्य पिण्ड ।
जाते दृग्गोचर नहीं होती, किन्तु उसके लक्षण अवश्य
प्राप्त होते हैं। तत्काल उत्पन्न कीट में भी अपने शरीर १. आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि के हेतु
के प्रति प्रतिबन्ध-मोह होता है। वह उपघात करने • पूर्वजन्म-पुनर्जन्म
वाले को देखकर पलायन कर जाता है। जिस ० स्वसंवेदन
जीव में जिस विषय का प्रतिबंध होता है, वह प्रतिबंध • संशय आदि विज्ञान
उसी विषय के परिशीलन के सतत अभ्यास से लब्ध होता २. आत्मा की अदृश्यता के हेतु
है। सभी जीवों में यह स्पष्ट है। जो जीव जिस वस्तु के ३. आत्मा का कर्तृत्व-भोक्तृत्व
गुण-दोष से अपरिचित है, उसमें उस वस्तु के प्रति किसी ४. आत्मा की नित्यता-अमूर्तता-अन्यता
प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं होता । इसलिए जन्म के प्रारंभ
में ही जीव में अपने शरीर के प्रति जो प्रतिबंध होता है, ५. आत्मा शरीरव्यापी
वह जन्म-जन्मान्तर में शरीर के परिशीलन के सतत * आत्मा और कर्म का संबंध
(द्र. कर्म)
अभ्यास के कारण ही होता है। इससे आत्मा का जन्मा६. आत्मा के विविध स्तर
न्तर से आगमन स्वतः सिद्ध होता है। १. चित्त
स्वसंवेदन २. मन
कयवं करेमि काहं वाहमहं पच्चया इमाउ य । *. लेश्या
(द्र. लेश्या)
अप्पा स प्पच्चक्खो तिकालकज्जोवएसाओ ।। ३. परिणाम
(विभा १५५५) ४. अध्यवसाय
मैंने किया, मैं करता हूं, मैं करूंगा-इस त्रिकालवर्ती ७. आत्म-जय : परम जय
व्यपदेश से होने वाले 'अहं प्रत्यय' से आत्मा प्रत्यक्ष सिद्ध * मुक्त आत्मा की ऊर्ध्वगति
(द्र. मोक्ष) | होती है । * मुक्त आत्मा (सिस) के प्रकार (द्र. सिन)
संशय आदि विज्ञान * संसारी आत्मा (जीव) के प्रकार) (द्र. जीव)
गोयम ! पच्चक्खो च्चिय जीवो जं संसयाइविन्नाणं । * पृथ्वी, अप, आदि में जीवत्व की सिद्धि (द्र. जीवनिकाय)
पच्चक्खं च न सझं जह सुह-दुक्खा सदेहम्मि ।।
(विभा १५५४) १. आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि
संशय, जिज्ञासा आदि विज्ञान जीव में होते हैं पूर्वजन्म-पुनर्जन्म
इसलिए जीव प्रत्यक्ष सिद्ध है। जो प्रत्यक्ष सिद्ध है, उसे आन्तरशरीरयुक्तोऽप्यात्मा आगच्छन् गच्छन वा नोप- दूसरे प्रमाणों से सिद्ध करने की अपेक्षा नहीं रहती। लभ्यते, लिङ्गतस्तुपलभ्यते एव । तथाहि कृमेरपि जन्तो- जैसे शरीर में होने वाले सुख-दुःख के संवेदन को दूसरे स्तत्कालोत्पन्नस्याप्यस्ति निजशरीरविषयः प्रतिबन्धः, प्रमाणों से सिद्ध नहीं किया जाता। उपघातकमुपलभ्य पलायनदर्शनात् । यश्च यविषयः फरिसेण जहा वाऊ, गिज्झई कायसंसिओ। प्रतिबन्धः स तद्विषयपरिशीलनाभ्यासपूर्वकः, तथादर्शनात्।
नाणाईहिं तहा जीवो, गिज्झई कायसंसिओ। न खल्वत्यन्तापरिज्ञातगुणदोषवस्तुविषये कस्याप्याग्रह
(दभा ३३) उपजायते । ततो जन्मादौ शरीराग्रहः शरीरपरिशीलना
जैसे शीत आदि के स्पर्श से देह-संगत वाय का भ्यासजनितसंस्कारनिबन्धन इति सिद्धमात्मनो जन्मान्तरा- अस्तित्व जाना जाता है, वैसे ही ज्ञान, दर्शन, इच्छा दागमनम् ।
(नन्दीमव प ४,५) आदि के द्वारा देहस्थ आत्मा का अस्तित्व जाना जाता है।
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