________________
आचार्य
आजीवक
क्वचिदसावेव सूत्रं शिष्येभ्यः प्रयच्छत्यसावेव चार्थम् । पर-हित के उपाय का चिन्तन करते हैं, वे उपाध्याय हैं।
(ओनिव प ३) ६. वाचनाचाय: वाचकवंश यह आवश्यक नहीं है कि आचार्य और उपाध्याय
वायणायरिओ नाम जो उवज्झायसंदिट्रो उद्देसादि भिन्न-भिन्न व्यक्ति हों। कदाचिद् जो सुत्र की वाचना देते बना
(आवचू २ पृ २१७) हैं, वे ही अर्थ की वाचना दे देते हैं।
जो उपाध्याय द्वारा संदिष्ट उद्देश-समद्देश-अनुज्ञाधम्मोवदेस दिक्खा वओअदेस दिस वायगा गुरवो। अनुयोग का संपादन करता है-सूत्र और अर्थ की एत्थेव उवज्झाओ गहिओ सुयवायणायरिओ॥ वाचना देता है, वह वाचनाचार्य है।
(विभा १८१८ कोव १३९३) वायगवंसो णाम जेहिं परंपरएणं सामाइयादि अत्थो जो धर्म का उपदेश देते हैं, शिष्यों को दीक्षित गंथो य वादितो।
(आवचू १ पृ८६) करते हैं, उन्हें उपस्थापित करते हैं, वाचना देते हैं, जो परम्परा से आचारांग आदि आगमों के सत्र यात्रा का निर्देश देते हैं, वे आचार्य हैं। श्रुतवाचनाचार्य और अर्थ की वाचना देता है, वह वाचक वंश है। को उपाध्याय कहा गया है।
वाचका उपाध्यायास्तेषां वंशः (वाचकवंशः) । बारसंगो जिणक्खाओ सज्झाओ कहिओ बुहेहिं ।
(विभामवृ पृ ४१८) तं उवइसंति जम्हा उवझाया तेण वच्चंति ।।
वाचक का अर्थ है ... उपाध्याय । उपाध्याय की
(आवनि ९९७) परंपरा को वाचक वंश कहा जाता है। . अहंत-प्रणीत द्वादशांगी का जो स्वयं स्वाध्याय वायेति सिस्साणं कालिय-पूव्वसुतं ति वातगाकरते हैं और शिष्यों को वाचना देते हैं, वे. उपाध्याय आचार्या इत्यर्थः। गुरुसण्णिहाणे वा सिस्सभावेण वाइतं
सुतं जेहिं ते वायगा। वंसो त्ति पुरिसपव्वपरंपरेण ठितो। अविदिण्णदिसो गणहरपदजोग्गो उवज्झातो।
(नन्दीचू पृ९) (दअचू पृ १५)
१. जो शिष्यों को कालिक श्रुत और पूर्वश्रत की वाचना जो आचार्य पद पर प्रतिष्ठित नहीं हैं और जो गण
देते हैं, वे वाचक अथवा आचार्य कहलाते हैं । धर पद के योग्य हैं, वे उपाध्याय कहलाते हैं।
२. जिन्होंने गुरु की सन्निधि में शिष्यभाव से श्रत का
वाचन किया है, वे वाचक हैं। उत्ति उवओगकरणे वत्ति अ पावपरिवज्जणे होइ। झत्ति अ झाणस्स कए उत्ति अ ओसक्कणा कम्मे ।।
उनकी वंशपरम्परा वाचकवंश कहलाती है।
(आवनि ९९९) आजीवक-महावीरकालीन एक श्रमण सम्प्रदाय । उवज्झाओ (उपाध्याय) में उ का अर्थ उपयोग, आजीविका पासंडत्था गोसालपवत्तिता। तेसि व का अर्थ पापवर्जन, झा का अर्थ ध्यान और ओ का सिद्धतमतेण चुताऽचुतसहिता सत्त परिकम्मा पण्णअर्थ कर्म का अपनयन है। .
विज्जति । ...."ते तिविहं णयमिच्छंति, तं जहाजो सूत्रार्थ में उपयोगवान् हैं, पापभीरु हैं, ध्यान दव्वट्टितो, पज्जवट्टितो उभयट्टितो। की गहराइयों में जाते हैं तथा कर्म का अपनयन करने
- (नन्दीचू पृ ७२,७३) में संलग्न हैं, वे उपाध्याय हैं। यह शब्द का निरुक्तार्थ आजीवक सम्प्रदाय गोशालक द्वारा प्रवर्तित है। है। जो सूत्रवाचना देने में अपने सूक्ष्म चिन्तन का उनके सिद्धांत के अनुसार सात परिकर्म प्रज्ञापनीय हैं। उपयोग करते हैं, वे उपाध्याय हैं।
उन्हें तीन नय मान्य हैं - द्रव्यास्तिक, पर्यायास्तिक और उवगम्म जओऽहीयइ जं चोवगयमझयाविति । उभयास्तिक । जं चोवायझाया हियस्स तो ते उवज्झाया ॥ . आजीविका तेरासिया भणिता। ते सर्व जगं
(विभा ३१९९) त्यात्मक इच्छंति, जहा -जीवो अजीवो जीवाजीवश्च, य जिनके पास आकर पढ़ते हैं अथवा जो संते असंते संतासंते एवमादि । (नन्दीच पृ७३) समागत शिष्यों को पढ़ाते हैं, वे उपाध्याय हैं। जो स्व- आजीवक मत राशिक कहलाता है। वह संपूर्ण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org