________________
अहिंसक यज्ञ
अहिंसा चाक्षुष (दृश्य), अचाक्षुष (अदृश्य) त्रस और स्थावर अचाक्षुष त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है। प्राणियों की हिंसा करता है।
तसकायं न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा। आउकायं न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा।
तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमाहिया ।। तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमाहिया ॥
तसकायं विहिंसंतो, हिंसई उ तयस्सिए । आउकायं विहिंसंतो, हिंसई उ तयस्सिए।
तसे य विविहे पाणे, चक्खुसे य अचक्खुसे। तसे य विविहे पाणे, चक्खुसे य अचक्खुसे ।
(द ६१४३,४४) (द ६२९,३०) सुसमाहित संयमी मन, वचन, काया-इस विविध ससमाहित संयमी मन, वचन, काया-इस त्रिविध करण तथा कृत, कारित और अनुमति-इस विविध करण और कृत, कारित एवं अनुमति-इस त्रिविध योग योग से त्रसकाय की हिंसा नहीं करते । जो त्रसकाय की से अप्काय की हिंसा नहीं करता। जो अप्काय की हिंसा करता है, वह उसके आश्रित अनेक प्रकार के हिंसा करता है, वह उसके आश्रित अनेक प्रकार के चाक्षुष, अचाक्षुष त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा चाक्षुष, अचाक्षुष त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है। करता है।
तसे पाणे न हिंसेज्जा, वाया अदुव कम्मणा । जायतेयं न इच्छंति पावगं जलइत्तए।
उवरओ सव्वभूएसु, पासेज्ज विविहं जगं ।। तिक्खमन्नयरं सत्थं सव्वओ वि दुरासयं ।।
(द ८।१२) (द ६।३२)
मुनि वचन अथवा काया से त्रस प्राणियों की हिंसा मुनि जाततेज अग्नि जलाने की इच्छा नहीं करते। न करे । वह सब जीवों के वध से उपरत होकर विभिन्न क्योंकि अग्नि दूसरों शस्त्रों से तीक्ष्ण शस्त्र और सब ओर प्रकार वाले जगत् को देखे--आत्मौपम्यदृष्टि से देखे। से दुराश्रय है।
अट्ट सुहुमाई पेहाए, जाई जाणित्तु संजए। अनिलस्स समारंभ बुद्धा मन्नति तारिसं ।
दयाहिगारी भूएसु, आस चिट्ठ सएहि वा ॥ सावज्जबहुलं चेयं नेयं ताईहिं सेवियं ॥
सिणेहं पुप्फसुहुमं च, पाणुत्तिगं तहेव य । तालियंटेण पत्तेण साहाविहुयणेण वा ।
पणगं बीय हरियं च, अंडसुहमं च अट्टमं ॥ न ते वीइउमिच्छन्ति वीयावेऊण वा परं।
(द ८।१३,१५) (द ६।३६,३७) संयमी मुनि आठ प्रकार के सूक्ष्म शरीर वाले जीवों तीर्थंकर वायू के समारम्भ को अग्निसमारम्भ के को देखकर बैठे, खड़ा हो और सोए। इन सूक्ष्म शरीर तुल्य ही मानते हैं। यह प्रचुर पापयुक्त है। यह छहकाय वाले जीवों को जानने पर ही कोई सब जीवों की दया के त्राता मुनियों के द्वारा आसेवित नहीं है।।
का अधिकारी होता है। इसलिए मुनि वीजन, पत्र, शाखा और पंखे से हवा वे आठ सूक्ष्म जीव इस प्रकार हैंकरना तथा दूसरों से हवा कराना नहीं चाहते।
१. स्नेह
५. काई वणस्सई न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा।
२. पुष्प
६. बीज तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमाहिया ॥
३. प्राण
७. हरित वणस्सई विहिंसंतो, हिंसई उ तयस्सिए ।
४. उत्तिग
८. अंडसूक्ष्म तसे य विविहे पाणे, चक्खुसे य अचक्खुसे ॥ १२. अहिंसक यज्ञ
(द ६।४०,४१) तवो जोइ जीवो जोइठाणं, सुसमाहित संयमी मन, वचन, काया-इस त्रिविध
जोगा सुया सरीरं कारिसंगं । करण तथा कृत, कारित और अनुमति -इस विविध ___कम्म एहा संजमजोगसंती, योग से वनस्पति की हिंसा नहीं करते । जो वनस्पति की
होम हणामी इसिणं पसत्थं ॥ हिंसा करता है, वह उसके आश्रित अनेक प्रकार के चाक्षुष,
(उ १२।४४)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org