________________
लेश्या - कोश
४४१
तान्यपि तदाकारभावमात्रां भजन्ते इति भावपरावृत्तियोगतः षडपि लेश्या घटन्ते; ततः सप्तमनरकपृथिव्यामपि सम्यक्त्वलाभ इति न कश्चिदोषः ।
यह सूत्र देव तथा नारकी के सम्बन्ध में जानना चाहिए क्योंकि देव तथा नारकी पूर्वभव के शेष अन्तर्मुहूर्त से आरम्भ करके परभव के प्रथम अन्तर्मुहूर्त तक अवस्थित श्यावाले होते हैं । इससे इनके कृष्णादिलेश्या द्रव्यों का परस्पर में सम्बन्ध होते हुए भी परिणमन—परिणामक भाव नहीं घटता है, इसलिए यथार्थ परिज्ञान के लिए प्रश्न किया गया है । हे भगवन् ! क्या यह निश्चित है कि कृष्णलेश्या के द्रव्य नीललेश्या के द्रव्यों को प्राप्त करके [ यहाँ प्राप्ति का अर्थ समीप मात्र है- परिणमन—परिणामक भाव द्वारा परस्पर सम्बन्ध रूप अर्थ नहीं है ] ' तद्रूपतया ' - 'नीललेश्या' के रूप में, 'तद्वर्णतया' नीललेश्या के वर्ण में, 'तद्गन्धतया' नीललेश्या की गन्ध में, 'तद्सतया' नीललेश्या के रस में, 'तद्स्पर्शतया' नीललेश्या के स्पर्श में, बारम्बार परिणमन नहीं करती हैं ।
भगवान उत्तर देते हैं - हे गौतम ! 'अवश्य कृष्णलेश्या नीललेश्या में परिणमन नहीं करती है ।' अब प्रश्न उठता है कि सातवीं नरक पृथ्वी में तब सम्यक्त्व की प्राप्ति कैसे होती है ? क्योंकि जब तेजोलेश्यादि शुभ लेश्या के परिणाम होते हैं, तब सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है तथा सातवीं नरक पृथ्वी में कृष्णलेश्या ही होती है । तथा 'भाव की परावृत्ति होने से देव तथा नारकियों के भी छः लेश्याएं होती है', यह वाक्य कैसे घटेगा ? क्योंकि अन्य लेश्या द्रव्यों के सम्बन्ध से यदि तद्रूप परिणमन असम्भव है तो भाव की परावृति नहीं हो सकती । अतः गौतम फिर से प्रश्न करते हैं- भगवन् ! आप यह किस अर्थ में कहते हैं ? भगवान उत्तर देते हैं कि उक्त स्थिति में आकारभावमात्र - छायामात्र परिणमन होता है अथवा प्रतिभाग - प्रतिबिम्ब मात्र परिणमन होता है । वहाँ कृष्णलेश्या प्रतिबिम्ब मात्र में नीललेश्या रूप होती है । लेकिन वास्तविक रूप में तो वह कृष्णलेश्या ही है, नीललेश्या नहीं है; क्योंकि वह स्वरूप का त्याग नहीं करती है । जिस प्रकार दर्पण में जवाकुसुम आदि का प्रतिबिम्ब पड़ता है, वह दर्पण जवाकुसुम रूप नहीं होता, केवल उसमें जवाकुसुम का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है । इसी प्रकार लेश्या के सम्बन्ध में जानना चाहिए ।
इसी प्रकार अवशेष पाठ जानने चाहिए ।
यह सूत्र पुस्तकों में साक्षात् नहीं मिलता, लेकिन केवल अर्थ से जाना जाता है; क्योंकि इस रीति से मूल टोकाकार ने व्याख्या की है ।
इस प्रकार देव
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org