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________________ ४२८ लेश्या-कोश धर्म-लेस्या अणारंभीपणो, ते खायक खयोपशम भाव । तेहथी कर्म कटैतिण सूं निर्जरा पदारथ, लेश्यादिक ने कह्यो इण न्याव रे ॥३६।। तिण सू धर्म-लेस्या सजोगी आहारता ने, खायक खयोपशम भाव कह्या छ । बलि निर्जरा पदारथ मांहे आण्या, समय रीत सूं न्याय कह्या छै ॥३७।। -झीणीचरचा, ढाल १३ यहाँ समुच्चय दृष्टि से तैजस और पद्म भाव लेश्या को क्षयोपशम भाव कहा गया है। भाव शुक्ललेश्या, आहारता और सयोगित्व को क्षायिक और क्षयोपशम भाव कहा गया है। उत्तराध्ययन के चौतीसवें अध्ययन ( ३४ । ५७ ) में तेजस, पद्म और शुक्ललेश्या को धर्मलेश्या कहा गया है । उस धर्मलेश्या को अनारम्भी कहा गया है। धर्मलेश्या क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव है। उनसे कर्म का क्षय होता है और वे निर्जरा पदार्थ भी है। इस युक्ति से धर्मलेश्या को क्षायिक व क्षयोपशम भाव कहा है। फलस्वरूप धर्मलेश्या, सयोगित्व और आहारता से क्षायिक, क्षयोपशम भाव और निर्जरा पदारथ में समवतरित किया है। आचार्य हरिभद्र ने तीन प्रकार के व्यक्ति बताये हैं-मंद, मध्यम और प्राज्ञ। तीनों को अलग-अलग तरीके समझाया जाए। कौन सा काम करने से किस प्रकार का प्रतिक्रिया होगी, यह समझ लेने पर प्राज्ञ व्यक्ति स्वतः सही मार्ग अपना लेता है। •७ भावे प्रथम तीन लेस्या किसोभाव छै ? उदे परिणामिक दोय । छमें जीव नवमें जीव नै आसव, साप्रत सावध जोय रे ।।६।। निरवद्य ऊजल लेखे नहि ते, करणी लेखे पिण निरवद नाय । सासती नहीं ते असासती कहिये, मोह कर्म उदै प्रवर्तायरे ।।१०।। समचैतेजूपदमभाव-लेस्याते,भावउदै खयोपसमपरिणामीक । छमें जीव नव में जीव आसव, निर्जरा सहचर सधीक रे ।।११।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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