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लेश्या-कोश
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बारहवें गुणस्थान में क्षायिक भाव नहीं होता, यह उल्लेख भी अन्तराय कर्म की दृष्टि से है । क्योंकि उसमें मोह कर्म का क्षायिक भाव तो हो जाता है, पर अन्तराय कर्म का नहीं होता है ।
सभी प्रशस्त भाव लेश्याओं का औपशमिक भाव को छोड़कर शेष चार भावों में अवतरण किया गया है । इससे यही फलित होता है कि लेश्या की संरचना में केवल दो कर्मों—नाम धौर अंतराय कर्म का सम्बन्ध है, मोह कर्म का उदय और अनुदय लेश्या के शुभ और अशुभ बनने में निमित्त बनता है ।
'५ ए खायक-भाव ते किसा कर्म नो, खायक- निपन कहिवाय ? अन्तराय-कर्म नो खायक- निपन छै, वीर्य-लब्धि प्रवर्ताय ||२४|| एखयोपसम-भाव ते किसा कर्म नो, खयोपशम निपन ताय । अन्तराय- -कर्म नो खयोपशम निपन, वीर्य चंचल सूं कर्म खपाय ||२५|| सुभभावलेस्या नै धर्म लेस्या कही, तिणसं खायकखयोपशमभाव । सुभ भाव लेस्या नै कर्म लेख्या कही, उदै -भाव इण न्याय ||२६|| -भीणीचरचा, ढाल १
लेश्याए' वीर्य-लब्धि से प्रवर्तित होती है, इसलिए वे अन्तराय कर्म के क्षय से निष्पन्न क्षायिक भाव में समविष्ट होती है ।
वीर्य की चंचलता से कर्मों का क्षय होता है, अतः वे अन्तराय कर्म के क्षयोपशम से निष्पन्न क्षयोगमिक भाव में समाविष्ट होती है ।
शुभ भाव लेश्याओं को धर्म लेश्या कहा गया है अंत, वे लेश्याएं क्षायिक और क्षयोपशमिक भाव में समाविष्ट होती है । उन्हें कर्म लेश्या भी कहा गया है अतः वे औदयिक भाव में समाविष्ट होती है ।
-६ इहां समचे तेजू पदम भाव-लेस्या ते, को खयोपशम भाव अधिकाय । भावे सुकल आहारंता नै संजोगी,
तेजू पदमसुकल धर्म - लेस्या की है.
उत्तराध्येन
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खायक खयोपशम भाव सवाय रे || ३४ ||
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चोतसमै
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थंभी ।
॥३५॥
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