________________
लेश्या-कोश
४११
धर्मध्यान को प्राप्त हुए जीव के तीव्र-मन्द आदि भेदों को लिए हुए क्रम से विशुद्धि को प्राप्त हुई, पीत, पद्म और शुक्ललेश्याएं होती है।
नोट-धर्मध्यान पहले गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक होता है। परन्तु शुक्लध्यान सातवें गुणस्थान से चौदहवें गणस्थान तक होता है। लेश्या तेरहवें गुणस्थान तक है। यद्यपि चतुर्दश गुणस्थान में शुक्लध्यान है परन्तु शुक्ललेश्या का अभाव है। चूकि इस गुणस्थानवाला अलेशी है। शैलेशी अवस्था में लेश्या व योग दोनों ही नहीं होते हैं। परन्तु औदारिक, तेजस, कार्मणतीनों शरीर हैं।
ध्यातारस्त्रिविधा ज्ञयास्तेषां ध्यानान्यपि विधा। लेश्या विशुद्धियोगेन फल सिद्धिदाता॥
--ज्ञाना० प्रक २८ । श्लो २६ अस्तु धर्मध्यान के ध्याता तीन प्रकार के भी कहे हैं और उनके ध्यान भी तीन प्रकार के कहे हैं, क्योंकि लेश्या की विशुद्धता से फल सिद्धि कही है।
नोट-गुणस्थान की अपेक्षा जघन्य मध्यम-उत्कृष्ट भेद से ध्याता तीन प्रकार के है । जहाँ जैसी विशुद्धता हो वैसे ही हीनाधिक ध्यान के भाव होते हैं और वैसा ही ज्ञानाधिक फल होता है।
द्रव्यलेश्या-निश्चयनय से पंच वर्णी होती है, व्यवहार नय से एक वर्णी भी होती हैं। द्रव्य लेश्या में निश्चयनय से पंच रस, दो गंथ, अष्टस्पर्श होते हैं तथा व्यवहारनय से एक रस, एक गंध भी होता है। सर्व बंथ होता है, देश बंध नहीं। द्रव्य लेश्या का सम्बन्ध–प्रायोगिक पुद्गलों से है, वैससिक पुदगलों से नहीं है। आचार्य हरिभद्र ने योग बिन्दु में योग का क्रम उपस्थित किया है वह इस प्रकार है
अध्यात्म भावना ध्यानं समता वृत्तिसंक्षयः ।
मोक्षेण योजनाद् योग, सब श्रेष्ठो यथोत्तरम् ॥३१॥ अर्थात् अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्ति-संक्षय-ये योग के भेद हैं। ये साधक को मोक्ष के साथ योजित करते हैं अतः उन्हें योग कहा जाता है। ये क्रमशः उत्तरोत्तर एक दूसरे से उत्तम है। इन पांचों योग में तेजो आदि तीन प्रशस्त लेश्या होती है। अप्रशस्त लेश्याओं में सम्यग प्रकार योग की साधना नहीं हो सकती है। यद्यपि कहीं-कहीं कर्मों के आगमन-आस्रव
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org