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लेश्या-कोश सास्वादन में एक सौ पैंतालीस, मिश्र गुणस्थान में एक सौ संतालीस प्रकृति की तथा असंयत गुणस्थान में एक सौ अड़तालीस कर्म प्रकृति की सत्ता रहती है।
नोट-सास्वादन गुणस्थान में तीर्थङ्कर और आहारक द्वय के बिना एक सौ पैंतालीस प्रकृति सत्ता में है।
तेजःपद्मलेश्ययोः सज्वमष्टचत्वारिंशत् गुणस्थानानि सप्त । तत्र सुहतियलेस्सियवामेवि ण तित्थयरसत्तमिति तन्मिथ्यादृष्टौ तीर्थसत्वं नास्ति, कुतः ? नरकगमनाभिमुखसंक्लिष्टभ्योऽन्येषां सम्यक्त्वविराधनाभावेन शुभलेश्यात्रये तद्विराधनासंभवात् । तेषु तन्मिथ्यादृष्टौ सन्वं सप्तचत्वारिंशत् शतं । सासादने पंचचत्वारिंशत शतं । मिश्रे सप्तचत्वारिंशच्छत । असंयते अष्टचत्वारिंशच्छतं देशसंयते नरकायुविना सप्तचत्वारिंशच्छतं । प्रमत्ते नरकतिर्यगायुषी विना षट्चत्वारिंशत् शतं । अप्रमत्तेऽपि तथैव षट्चत्वारिंशत् शतं ।
शुक्ललेश्यायां सच्वमष्टचत्वारिंशत् शतं । गुणस्थानानि मिथ्यादृष्ट्यादीनि त्रयोदश। तत्रापि मिश्यादृष्टौ तीर्थासत्वात् । सन्वं सप्तचत्वारिंशत् शतं । सासादनादिषु गुणस्थानोक्तैव संदृष्टिः ।
____-गोक० गा ३५४ टीका तेजो और पद्म लेश्या में सत्ता १४८ कर्म प्रकृतियाँ की है। गुणस्थान प्रथम सात हैं। आगम में कहा है कि शुभ तीन लेश्याओं में निध्यादृष्टि गुणस्थान में तीर्थङ्कर की सत्ता नहीं होती है अतः मिथ्यादृष्टि में तीर्थङ्कर की सत्ता नहीं है क्योंकि जो तीर्थङ्कर की सत्तावाला नरक जाने के अभिमुख होता है उसके भी सम्यक्त्व की विराधना होती है। अतः तीन शुभ लेश्याओं में सम्यक्त्व की विराधना संभव नहीं है। इस कारण मिथ्यादृष्टि में सत्ता एक सौ सैंतालीस प्रकति की है। सास्वादान में एक सौ पैंतालीस, ( तीर्थङ्कर आहारक द्वयबाद ) मिश्र गुणस्थान में एक सौ सैंतालीस, असंयत में एक सौ अड़तालीस प्रकृति सत्ता में है। देशसंयत में नरकायु के बिना एक सौ सैंतालीस कर्म प्रकृति की सत्ता है। प्रमत्त संयत में नरकायु तथा तिर्यञ्चायु के बिना एक सौ छियालीस तथा अप्रमत्त संयत में भी इसी प्रकार एक सौ छियालीस प्रकृति की सत्ता है।
शुक्ल लेश्या में एक सौ अड़तालीस की सत्ता है। गुणस्थान मिथ्यादृष्टि आदि तेरह है। यहाँ भी मिथ्यादृष्टि में तीर्थङ्कर का असत्त्व होने से एक सौ
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