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लेश्या-कोश
३१९ शुक्ललेश्यायां-उदययोग्यं नवोत्तरशतं १०६ ।
-गोक० ३२७ टीका शुक्ल लेश्या में उदय योग्य एक सौ नौ ( १०६ ) है। पंच णव दोण्णि अट्ठावीसं चउरो कमेण सत्तट्ठी । दोणि य पंच य भणिदा एदाओ उदयपयडीओ।
-गोक० गा ३६ उदय प्रकृतियां ज्ञानावरण आदि की क्रमशः पांच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, सड़सठ, दो, पांच मिलकर एक सौ बाईस प्रकृतियाँ कही है।
नोट-उदय में भेद विवक्षा से एक सौ अड़तालीस है और अभेद विवक्षा से १२२ हैं। किण्हदुगसुहतिलेस्सियवामेवि ण तित्थयर सत्तं ।
-गोक० ३५४ उत्तरार्ध टीका-लेश्यामार्गणायां कृष्णनीलयोः सत्वमष्टचत्वारिंशच्छतं गुणस्थानि मिथ्यदृष्ट्यादीनि चत्वारि। तत्र किण्हदुगवामेण तित्थयरसत्तमिति मिथ्यादृष्टौ सत्त्वं सप्तचत्वारिंशच्छतं । अशुभलेश्यात्रये तीर्थबंधप्रारंभाभावात् । बद्धनारकायुषोऽपि द्वितीयतृतीयपृथ्व्योः कापोतलेश्यैव गमनात् ।
कपोतलेश्यायां मिथ्यादृष्टौ सत्वमष्टचत्वारिंशत् शतं । सासादने पंचचत्वारिंशत् शतं । मिश्रे सप्तचत्वारिंशत् शतं । असंयते सर्वे। - लेश्या मार्गणा में कृष्ण और नील में सत्ता १४८ प्रकृति की है। गुणस्थान मिथ्यादृष्टि आदि चार है। कृष्ण, नील में मिथ्यादृष्टि गणस्थान में तीर्थङ्कर की सत्ता का अभाव कहा है, क्योंकि तीन अशुभ लेश्याओं में तीर्थङ्कर के बंध का प्रारंभ नहीं होता। तथा जिसने नरकायु का बंध किया है वह मर कर दूसरी व तीसरी नारकी में यदि जाता है तो कापोत लेश्या में ही जाता है । ___ अतः कृष्ण-नील में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में एक सौ सैंतालीस प्रकृति की सत्ता रहती है। कापोत लेश्या में मिथ्यादृष्टि में सत्ता एक सौ अड़तालीस की है।
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