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लेश्या-कोश
३११ तीव पापकर्म के भोगने का प्रारम्भ तथा अन्त एक काल या भिन्न काल में करते हैं। इस अपेक्षा से चार विकल्प बनते हैं-(१) भोगने का प्रारस्भ समकाल में करते हैं तथा भोगने का अन्त भी समकाल में करते हैं, (२) भोगने का प्रारम्भ समकाल में करते हैं तथा भोगने का अन्त विषमकाल में करते हैं, (३) भोगने का प्रारम्भ विषमकाल में तथा भोगने का अन्त समकाल में करते हैं, (४) भोगने का प्रारम्भ विषमकाल में तथा अन्त भी विषमकाल में करते हैं।
जीव चार प्रकार के होते हैं। यथा-(१) कितने ही जीव सम आयु वाले तथा समोपपन्नक, (२) कितने ही जीव सम आयु वाले तथा विषमोपपन्नक, (३) कितने ही जीव विषम आयु वाले तथा समोपपन्नक तथा (४) कितने ही जीव विषम आयु वाले तथा विषमोपपन्नक होते हैं।
(१) जो जीव सम आयु वाले तथा समोपपन्नक हैं वे पापकर्म का वेदन समकाल में प्रारम्भ करते हैं तथा समकाल में अन्त करते हैं, (२) जो जीव सम आयु वाले तथा विषमोपपन्नक हैं वे पापकर्म का बेदन समकाल में प्रारम्भ करते हैं तथा विषमकाल में अन्त करते है, (३) जो जीव विषम आयु वाले तथा समोपपन्नक हैं वे पापकर्म के वेदन का प्रारम्भ विषमकाल में करते हैं तथा समकाल में पापकर्म का अन्त करते हैं, तथा (४) जो जीव विषम आयु वाले हैं तथा विषमोपपन्नक हैं वे पापकर्म के वेदन का प्रारम्भ विषमकाल में करते हैं तथा विषमकाल में ही पापकर्म का अन्त करते हैं ।
सलेशी जीव सम्बन्धी वक्तव्य सर्व औधिक जीवों की तरह कहना चाहिये । इसी प्रकार सलेशी नारकी यावत् वैमानिक देवों तक कहना चाहिये। अलगअलग लेश्या से, जिसके जितनी लेश्या हो, उतने पद कहने चाहिये। पापकर्म के दण्डक की तरह आठ कर्मप्रकृतियों के आठ दण्डक औधिक जीव यावत् वैमानिक देव तक कहने चाहिये ।
अनंतरोववनगाणं भंते ! नेरइया पावं कम्मं किं समायं पट्टर्विसु समायं निविंसु पुच्छा ? गोयमा ! अत्थेगइया समायं पट्टविसु समायं निविंसु, अत्थेगइया समायं पट्टविंसु विसमायं निविसु । से केणणं भंते ? एवं वुच्चइ-अत्थेगइया समायं पट्टविंसु, तं चेव ? गोयमा ! अनंतरोववन्नगा नेरइया दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-अत्थेगइया समाउया समोववन्नगा, अत्थेगइया समाउया विसमोववन्नगा, तत्थ णं जे ते समाउया समोववन्नगा ते णं पावं कम्मं समायं पट्टविंसु
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