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लेश्या-कोश '७५.१७ सलेशी औधिक जीव-दंडक और नामकर्म का बन्धननामं गोयं अतरायं च एयाणि जहा नाणावरणिज्जं ।
-भग० श २६ । उ १ । सू २५ । पृ० ६०१ ज्ञानावरणीय कर्म के बन्धन की वक्तव्यता की तरह नामकर्म-बन्धन की वक्तव्यता कहनी चाहिये । ( देखो पाठ '७५.१.१)
'७५१८ सलेशी औधिक जीव-दंडक और गोत्रकर्म का बन्धन___ ज्ञानावरणीय कर्म के बन्धन की वक्तव्यता की तरह गोत्रकर्म-बन्धन की वक्तव्यता कहनी चाहिये । ( देखो पाठ '७५.१.२)
७५.१.६ सलेशी औधिक जीव-दंडक और अंतरायकर्म का बन्धन
ज्ञानावरणीय कर्म के बन्धन की वक्तव्यता की तरह अंतरायकर्म-बन्धन की वक्तव्यता कहनी चाहिये । (देखो पाठ ७५.१.२)। '७५.२ सलेशी अनंतरोपपन्न जीव और कर्म का बन्धन
सलेस्से णं भंते ! अणंतरोववन्नए नेरइए पावं कम्मं किं बंधी० पुन्छा ? गोयमा ! पढमबिइया भंगा । एवं खलु सव्वत्थ पढमबिइया भंगा, नवरं सम्मामिच्छत्तं मणजोगो वइजोगो य न पुच्छिज्जइ । एवं जाव-णियकुमाराणं । बेइदिय-तेइ दिय-चउरिदियाणं वइजोगो न भन्नइ । पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं वि सम्मामिच्छचं, ओहिनाणं, विभंगनाणं, मणजोगो, वइजोगो-एयाणि पंच पयाणि णं भन्नति । मणुस्साणं अलेस्स-सम्मामिच्छत्त-मणपज्जवनाण-केवलनाण-विभंगनाण - नोसन्नोवउत्त-अवेयग-अकसायी-मणजोग-वयजोग-अजोगिएयाणि एकारस पदाणि ण भन्नंति । वाणंमतर-जोइसिय-वेमाणियाणं जहा नेरइयाणं तहेव ते तिनि न भन्नति । सव्वेसिं जाणि सेसाणि ठाणाणि सव्वत्थ पढमबिइया भंगा। एगिदियाणं सव्वत्थ पढमबिइया भंगा।
जहा पावे एवं नाणावरणिज्जेण वि दंडओ, एवं आउयवज्जेसु जाव अंतराइए दंडओ। अणं तरोववन्नए णं भंते ! नेरइए आउयं कम्म
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