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तणं से उसू उढं वेहासं उव्विहिए समाणे जाई तत्थ पाणाई अभिहणइ वत्तेति लेस्सेत्ति ।
अस्तु यही क्रम तेजुलेश्या का है । उसमें भी तीन, चार और पांच क्रियाओं का विधान है । उसके अष्टस्पर्शी पुद्गल द्रव्य मार्गवर्ती जीवों को उद्वेग न करें, सहज है, अतः तेजू के साथ प्रयुक्त लेश्या का अर्थ लेसेइ, करना भी न्याय संगत लगता है । स्कन्धक मुनि के लिए अबहिलेश्या, एक विशेषण आया है । जिसकी लेश्या मनोवृत्ति संयम से बाहर नहीं है | १ यह भावलेश्या के अर्थ में है । प्रथम आचारांग में श्रद्धा का प्रकर्ष भाव बतलाते हुए मनोयोग के लिए लेश्या का प्रयोग किया गया है । शिष्य गुरु की दृष्टि का अनुगमन करे, उनकी लेश्या में विचरे अर्थात् उनके भावों (विचारों) का अनुगमन करे । प्रज्ञापना, जीवाभिगम, उत्तराध्ययन, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति आदि आगम ग्रन्थों में लेश्या शब्द वर्ण, प्रभा और रंग के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है । जिस स्थान में शुभ रंगों की प्रधानता है वहाँ के निवासियों में भी स्थित प्रशस्त द्रव्य लेश्यायें' ग्रहण की है । जीवाभिगम में देवों के विमानों के वर्णों का वर्णन है । वहाँ बतलाया गया है - अनुत्तर विमान परम शुक्ल वर्ण के हैं और अनुत्तर विमानवासी देवों में एक शुक्ल (परमशुक्ल) लेश्या होती है । इस शास्त्र वाक्य में ऐसा लगता है कि उनकी स्थित द्रव्यश्या का हेतु पारिपाश्विक शुक्ल पर्यावरण है ।
- भग० श २।५।३६
आभामंडल का सम्बन्ध तेजस लेश्या के साथ भी है । इसको लब्धि के रूप में भी प्राप्त किया जाता है । तैजसलब्धि से सम्पन्न व्यक्ति अपनी शक्ति का प्रयोग करता है उसे सहन करना हो जाता है । वैश्यायन बाल तपस्वी ने क्रुद्ध गोशालक पर उष्ण तेजो लेश्या को छोड़ा उससे पहले ही भगवान् महावीर ने शीतल तेजोलेश्या के प्रयोग से गोशालक को बचा लिया ।
अस्तु भगवान ने वैश्यायन द्वारा तेजोलेश्या के प्रयोग का प्रसंग उसे सुना दिया । सहज भाव से भगवान ने कहा- छः मास तक बेले- बेले की तपस्या करना, पारण में एक मुट्ठि उड़द खाना और दो चुलू भर पानी पीना तथा दोनों बाहों को ऊपर उठाकर सूरज का ताप सहन करना । इस प्रक्रिया से संक्षिप्तविपुल तेजोलेश्या प्राप्त होती है ।
१. अबहिल्लेसे - भग० श २ । उ १ । सू ५५
२. आचारांग अ० ५
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