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होती है | भगवान ने प्रत्युत्तर देते हुए कहा- जो व्यक्ति छः मास तक निरन्तर बेले-बेले ( दो दिन का तप ) की तपस्या करता है । पारणे में मुट्ठी भर कुल्माष तक चुलू भर गर्म जल के साथ खाता है और आतापन भूमि में सूर्याभिमुख होकर ऊर्ध्वबाहु बनकर आतापन लेता है उसे छः मास के भीतर यह लब्धि प्राप्त हो सकती है ।
"कहणणं भंते! संखित्त विउलतेयलेस्से भवति ? तएणं अहं गोयमा ! गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी - जेणं गोसाला एगाए सणहाए कुम्मासपिंडियाए एगेण य वियडासएणं छह-छट्ट ेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उडूढं बाहाओ पगिज्मिय परिज्भिय सूराभिमुद्दे आयाभूमी आयावेमाणे विहरइ । से णं अंतो छण्हं मासाणं संखित्तविउलतेयलेस्से भवइ ।
- भग० श १५ । सु ६६, ७०
शीत तेजोलेश्या -लब्धि - यह तेजोलेश्या की प्रतिपक्षी लब्धि है । इसमें तेजोलेश्या को प्रतिहत करने की शक्ति निहित है । इसका प्रयोग करुणा से ओतप्रोत होकर व्यक्ति तेजोलेश्या से उपहृत मनुष्य के प्रति करता है । भगवान महावीर ने वैश्यायन बाल-तपस्वी द्वारा छोड़ी हुई तेजोलेश्या लब्धि को शीत तेजोलेश्या लब्धि से ही निरस्त किया था ।
शीत लेश्यालब्धिस्त्वगण्यकारूण्यवशादवुग्राह्य प्रतितेजोलेश्या
प्रशमनप्रत्यलशीतलतेजोविशेषविमोचन सामर्थ्यम् ।
तेजुलेश्या के छोड़ने से जघन्य तीन, मध्यम चार व उत्कृष्ट पांच क्रियाए लगती है । परितापना के प्रकार बतलाते हुए भगवान ने कहा- 'लेसेइ-वाण मार्गवर्ती' जीवों को संत्रस्त करता है, अर्थात् वाण के प्रकार से वे जीव अत्यन्त सिकुड़ जाते हैं । टीकाकार' ने कहा है- "श्लेषयति आत्मनि श्लिष्टान् करोति" जीव के प्रदेश शरीर में संकोच पाकर घन ( पिंड ) बन जाते हैं । इस सन्तापकारक स्थिति में वाण के जीवों को मार्ग में जाते समय चार क्रियाएं लगती है । यदि प्राणातिपात हो जाय तो पांच क्रिया । कहा है
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१. भग० टीका
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- प्रसा० पत्र ४३२
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