________________
(
28
)
अर्थात् जो जीव मानसिक वेदना वेदते हैं, उन जीवों के शोक होता है। शोक रूप आतध्यान संज्ञी जीवों के होता है। नारकी, देव, संज्ञी तिथंच-संज्ञी मनुष्यों के शोक होता है। मनोयोग वाले जीवों को जरा और शोक दोनों होते हैं । असंज्ञी जीवों के जरा होती है परन्तु शोक नहीं।
भगवइ श १७ । उ १२ में कहा है
"एगिदियाणं भंते ! सव्वे समाहारा०? एवं जहा पढमसए बितियउद्देसए पुढविक्काइयाणं वत्तव्वया भणिया सा चेव एगिदियाणं इह भाणियव्वा जाव समाउया, समोववनगा।
-भग० श १७ । उ १२ । सू ८२ । पृ० ७५२
देखो लेश्या कोश पृ० ३४० । क्रमसंख्या ६
पृथ्वीकायिक जीवों का आहार, कर्म, वर्ण व लेश्या नारकी के समान समझना याहिए।
चूकि सभी नारकी समान लेश्यावाले नहीं है, क्योंकि नारकी दो प्रकार के होते हैं, यथा पूर्वोपपन्नक तथा पश्चादुपपन्नक। इनमें जो पूर्वोपपन्नक है वे विशुद्ध लेश्यावाले और इनमें जो पश्चादुपपन्नक है वे अविशुद्ध लेश्यावाले हैं । इसलिए ऐसा कहा जाता है कि सभी नारकी समान लेश्यावाले नहीं है ।
एकेन्द्रिय जीव भी नारकी की तरह समान लेश्या वाले नहीं है।
जीवों के अनुगत आहारोपचित, शरीरोपचित और कलेवरोपचित पुद्गल होते हैं। तथा पुद्गलों के आश्रित्र ही जीवों और पुद्गलों की गति-पर्याय कही गई है। अलोक में जीव नहीं है और पुद्गल भी नहीं है अतः महद्धिक देव यावत् महासुख वाला देव, लोकान्त में रह कर अलोक में हाथ यावत् उरु को संकोचने व पसारने में समर्थ नहीं है। अतः अलोक में लेश्या नहीं है, लोक में ही लेश्या का विवेचन करना चाहिए। तीनों लोक में जीव है अतः लेश्या परिणाम भी तीनों लोक में है। अलोक में अलेशी-मनुष्य-सिद्ध भी नहीं है।
तेजोलेश्या ( तेजो लब्धि ) के निक्षिप्त करने से कम से कम तीन क्रिया, मध्यम ४ क्रिया व उत्कृष्ट ५ क्रिया लगती है। इसी प्रकार आहारकलब्धि-वैक्रियलब्धि के फोड़ने से जघन्य ३ क्रिया, मध्यम चार क्रिया, उत्कृष्ट पांच क्रिया लगती है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org