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लेश्या-कोश
१२७ वचन से वक्र, विषम आचरणवाला, कपटी, असरल, अपने दोषों को ढाँकनेवाला, परिग्रही, मिथ्या दृष्टि, अनार्य, मर्मभेदक, दुष्ट वचन बोलने वाला, चोर, मत्सर स्वभाववाला पुरुष कापोतलेश्या के परिणामवाला होता है। '४७.४ तेजोलेश्या के लक्षण
नीयावित्ती अचवले, अमाई अकुऊहले। विणीयविणए दन्ते, जोगवं उवहाणवं ॥ '. पियधम्मे दढधम्मे, वज्जभीरू हिएसए। एयजोगसमाउत्तो, तेउलेसं तु परिणमे ।।
-उत्त० अ ३४ । गा २७-२८ । पृ० १०४७ नम्र, चपलता रहित, निष्कपट, कुतूहल से रहित, विनीत, इन्द्रियों का दमन करनेवाला, स्वाध्याय तथा तप को करनेवाला, प्रियधर्मी, दृढ़धर्मी, पापभीरू, हितेषी जीव, तेजोलेश्या के परिणामवाला होता है। '४७.५ पद्मलेश्या के लक्षण
पयणुक्कोहमाणे य, मायालोभे य पयणुए । पसंतचित्ते दंतप्पा, जोगवं उवहाणवं ।। तहा पयणुवाई य, उवसंते जिईदिए । एयजोगसमाउत्तो, पम्हलेसं तु परिणमे ॥
-उत्त० अ ३४ । गा २६-३० । पृ० १०४७ जिसमें क्रोध, मान, माया और लोभ स्वल्प हैं, जो प्रशान्तचित वाला है, जो मन को वश में रखता है, जो योग तथा उपधानवाला, अत्यल्पभाषी, उपशान्त और जितेन्द्रिय होता है-उसमें पद्मलेश्या के परिणाम होते हैं । '४७.६ शुक्ललेश्या के लक्षण
अहरुदाणि वज्जित्ता, धम्मसुक्काणि साहए । पसंतचित्ते दंतप्पा, समिए गुत्ते य गुत्तिसु ॥ सरागे वीयरागे वा, उवसंते जिइ दिए । एयजोगसमाउत्तो, सुक्कलेसं तु परिणमे ।।
-उत्त० अ ३४ । गा ३१-३२ । पृ० १०४७
* पाठान्तर-झायए
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